Tuesday 30 December 2014

पीके देखिए, ठहाका लगाइए और किमाम का पान खाइए

 पीके का विरोध समझ के परे है। यह फिल्म 153 मिनट का एक लतीफा है। ओशो ने चालीस तक अपने प्रवचनों में इससे कहीं ज्यादा धारदार, तर्कपूर्ण और प्रभावशाली ढंग से धर्मों में गुंथी कुरीतियों पर बोला है। उन्होंने सभी धर्मों के पोंगापंथियों, मुल्लों और पादरियों की खाल खींची। पीके उसके आगे चवन्नी भी नहीं है। कुछ संगठनों का विरोध इसे और हिट बना रहा है। पांच मिनट के फूहड़ और मजाकिया सीन भर से महादेव शिव के प्रति सनातन आस्था खंडित हो जाएगी, यह असंभव है। इससे पहले ओ माई गॉड और जाने भी दो यारो में भी हिंदू धर्म के पौराणिक पात्रों पर हास्यपूर्ण फिल्में बन चुकी हैं। ओ माई गॉॅड के कुछ सीन तो ओशो के प्रवचनों से ही लिए गए थे।
  ऐसे किसी भी प्रयास से भारतीयों को भयभीत होने की जरूरत नहीं है। धर्म की जड़ें यहां इतनी गहरी हैं कि बड़े-बड़े कम्युनिस्ट नेता भी अपने नए घर में प्रवेश के लिए बाकायदा वास्तु पूजन कराते रहे हैं। धर्म निरपेक्ष पार्टियों के नुमाइंदे भी छठ पूजा में जोरशोर से शामिल होते हैं। उनके राजनीति एक दुकान है, जिसमें कुछ नारों को उछालना मजबूरी है। ज्यादातर नेताओं के लिए सेकुलरिज्म एक ऐसा ही दिखावटी अनुष्ठान है। हकीकत में उनकी चेतना धर्म की गजब गहराइयों में जुड़ी है। वे बच ही नहीं सकते। हमारा डीएनए ऐसा ही है। यहां रामकृष्ण परमहंस ने ईश्वर के विरुद्ध एक घनघोर नास्तिक के अद्भुत तर्कों पर झूम-झूमकर कहा था कि ये तर्क सुनकर उनका ईश्वर में विश्वास और मजबूत हो गया है, क्योंकि इतनी प्रखर बुद्धि और इतने प्रभावी तर्क वही दे सकता है। उस नास्तिक ने परमहंस के सामने माथा टेक दिया था।
 पीके जैसे किसी भी प्रयास का ऐसा विरोध उन नए धर्मों से प्रेरित है, जिनकी परंपरा कुछ सदियों पुरानी ही हैं। उनके पास धर्म की संपदा सीमित है। एकाध बहीखाता और एकाध तिजोरी बस। एक किताब। एक पैगंबर। उसकी एक छोटी सी जिंदगी में कही गई चंद बातें। इसलिए जैसे ही सलमान रुश्दी कुछ लिखते हैं तो जमीन हिल जाती है। मौत के फतवे जारी हो जाते हैं। डर है कि ऊपर से विशाल दिखाई देने वाली इमारत एक-दो खंभों पर ही खड़ी है। किसी ने चोट कर दी तो भरभरा जाएगी। इसलिए जान से मारो साले को।
 भारत की भूमि पर विकसित धर्म का मामला उलट है। यहां रामायण, महाभारत और गीता के अलावा उपनिषदों और पुराणों की अटूट श्रृंखला है, जो दस हजार साल की सभ्यता के विकास में पैदा हुई है। तीन प्रमुख देवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश के अलावा राम और कृष्ण के अवतारों से होकर यह बुद्ध और महावीर से संसार का परिचय कराते हुए शंकराचार्य तक पहुंची। फिर तुलसी, कबीर और रसखान से होकर नानक समेत दस महान् गुरुओं तक गई। दयानंद और विवेकानंद जैसे नक्षत्र इसी आकाश में चमके, जो अनंत है। कृष्णमूर्ति, ओशो और महेश योगी से लेकर यह परंपरा अटूट ही है। आसाराम और रामपाल जैसे कूड़ा-करकट खुद किनारे लगते रहे हैं। यहां के धर्म का स्वचालित सिस्टम गजब है। यह अपना शुद्धिकरण खुद कर लेता है। कोई कचरा फैलाता है तो दूसरा झाड़ू फटकारने भी आ जाता है।
सात सौ साल तक इसे नष्ट करने के प्रयास पूरी ताकत और संगठित तौर पर हो चुके हैं, जब हजारों मंदिर मटियामेट किए गए। नरसंहार हुए। मनों वजनी जनेऊ जलाए गए। जजिया थोपा गया। तीर्थों को बरबाद किया गया। पूजा-पाठ, तिलक और मुंडन पर बंदिशें लगाई गईं। तब भी यह संस्कृति जड़मूल से नष्ट नहीं हो सकी। उन सनकी सुलतानों के वंश ही जड़मूल से खत्म हो गए। अपने पीछे बरबादी की एक विरासत जरूर संक्रमण की तरह चिपकाने में कुछ हद तक कामयाब हुए। मगर यह देश टूटफूटकर भी बचा रहा। धर्म फलता-फूलता रहा।
 एक आखिरी बात, संसार के सारे आतंकी संगठन और उनके माईबाप मुल्क अपने सारे लावलश्कर के साथ संयुक्त राष्ट्र संघ पर पूरी ताकत से टूट पड़ें तो भी वे साल में एक दिन जिहाद दिवस के रूप में मान्य नहीं करा सकते। मगर योग दिवस के रूप में दुनिया में मान्यता अगर मिलती है तो उसके मूल में भारत की चेतना में जागृत इसी धर्म का कमाल है। तो सम्मान किसका है और संदेह किस पर? हिरानी और आमिर ने नंगे होकर एक लतीफा सुनाया है। सुन लीजिए। ठहाका लगाइए और सिनेमाघर के बाहर आकर किमाम का पान खाइए।

Saturday 20 December 2014

हिंसा और असली धर्म

 कोई भी विचार कब धर्म का रूप ले सकता है? क्या धर्म ऐसी चीज है, जो हाड़मांस का बना कोई इंसान अपने जीवन में ही बनाकर खड़ा दे और वो भी ऐसा कि फिर उसमें किसी तरह के रद्दोबदल की कोई गुंजाइश ही न हो? एकदम परफेक्ट प्रोडक्शन! और जिसे मानने के लिए संसार को मजबूर भी किया जाए। न मानने पर मौत की सजा मुकर्रर कर दी जाए। अगर मानते हो तो महान् वर्ना दोयम दर्जे के इंसान, जिसके लिए नृशंस तरीके से दी गई मृत्यु ही एकमात्र विकल्प। आपकी सारी मान्यताएं फिजूल। आपकी इबादगाहें दो कौड़ी की। आपके देवता धूल में मिलाने योग्य। आपकी संस्कृति उजडऩे के ही काबिल!

  भारत भूमि पर विकसित सनातन धर्म दस हजार साल पुरानी संस्कृति की उपज है। कोई एक इसका ठेकेदार नहीं है, जिसके नाम ऊपर वाले ने टेंडर जारी किया हो। इसमें हजारों कारीगर हैं, जिनकी अनगिनत पीढिय़ों की तप-साधना लगी है। रंगबिरंगी कलाएं पनपीं, जिनसे मनुष्य की जिंदगी में खूबसूरती के रंग भरे। वेदों की ऋचाएं अनेक ऋषियों के नाम से हैं मगर कई ऋचाएं ऐसी हैं, जिनके ऋषि अज्ञात हैं। वे कोई दस-पचास साल में किसी एक इंसान के सीमित दिमाग की उपज नहीं हैं। हजारों सालों तक पैदा हुई सर्वश्रेष्ठ प्रतिभाओं की जीवन भर की साधना और अनुभवों का निचोड़ है भारतीय संस्कृति।
 वैदिक युग में ख्ेातीबाड़ी पर आधारित हुए समुदायों ने जंगली जीवन से छुटकारा पाया था। वे हर तरह की पाशविकता से मुक्ति के मार्ग पर चल पड़े थे। भोजन के लिए शिकार पर निर्भर लोगों ने कृषि की खोज कर ली थी। गाय-बैल उनके सहयोगी बने थे। पशुओं के बीच पशुओं की तरह रहकर जीते रहे उस समुदाय ने पहले-पहल अपने जीवन में कुछ शांति और समय पाया होगा, जब वे फसलें उगाने लगे होंगे। इसी अवकाश में गीत-संगीत और सृजन के लिए जगह बनी होगी। भाषाएं और लिपियां खोजी गई होंगी। शास्त्र उपजे होंगे। सभ्यता के विकास में वे मोहनजोदड़ों-हड़प्पा के व्यवस्थित शहरी जीवन तक चले आए होंगे, जिसकी मिसालें आज तक दी जाती हैं। लेखन, गायन, अभिनय, नाटक, गीत, संगीत, तर्क, गणित, वास्तु, योग और ध्यान के हर चरम को छूते हुए अनगिनत रीति-रिवाजों ने जड़ें फैलाईं। मगर कुछ बुराइयां भी पनपीं। लोग जातियों के बदशक्ल दायरों में भी बटे।
 कुलमिलाकर एक विशाल और सम्द्ध संस्कृति ने भारत की धरती पर आकार लिया। यह हजारों साल के परिश्रम और प्रतिभाओं के सर्वश्रेष्ठ योगदान का फल था। इसमें कई युगों के कई अवतार पुरुषों ने भी अपने हिस्से का काम पूरा किया था। हर कोई एक बड़ी इमारत में एक ईंट की तरह योगदान दे रहा था। जो सहमत था, वह भी स्वीकार। जो असहमत है, वह भी स्वीकार। भौतिक जीवन को संसार की सब खुशियों से भरने और आध्यात्मिक जीवन को मोक्ष का सर्वोच्च स्वप्न देने वाली महान् संस्कृति, जिसने किसी को कभी कोई मामूली सी चोट भी नहीं पहुंचाई। वे हर तरह की हिंसा से मुक्ति के पक्षधर थे। वे ऐसे लोग थे, जो किसी जल्दबाजी में नहीं थे। वे जानते थे कि एक बीज को वृक्ष बनने में कई वर्ष लगते हैं। उन्होंने कई वृक्षों से हरा-भरा एक उपवन तैयार किया था। सोने की चिडिय़ा नाम मिला।
 ठीक ढाई हजार साल पहले इस धारा में गौतम बुद्ध और महावीर एक ही समय में ऐसी दो विभूतियां हुईं, जिनके नाम से दो अलग धर्म विकसित हुए। अलग धर्म के रूप में होने के बावजूद बौद्ध और जैन इसी उपवन के दो ताजे फूल की तरह महकते रहे। नानक के साथ सिख अस्तित्व में आए, जो गुरू गोविंदसिंह पर आकर साधना के साथ साहसपूर्ण ढंग से अन्याय के विरुद्ध खड़े होकर अपने समय की एक सबसे बड़ी जरूरत पूरी कर रहे थे। मगर कोई गुरुद्वारा किसी स्तूप के मलबे पर खड़ा नहीं हुआ। यह असली सरदारों को शोभा नहीं देता था। कोई स्तूप किसी मंदिर को तोडक़र नहीं बनाया गया। यह बुद्ध के अनुयायियों के लिए अकल्पनीय था। तीर्थंकरों के मंदिर बुद्ध के स्मारकों पर स्थापित नहीं किए गए। यह महावीर के मत को मानने वाले सपने में नहीं सोच सकते थे। एक उपवन में अपने ढंग से विकसित होने की गुंजाइश सबको थी। यह एक ऐसा आसमान था, जिसमें कोई भी गरुड़ अपनी सबसे आकर्षक उड़ान भर सकता था। दूसरे के पंख कतरने या गला रेतने की उल्टी सोच ही नहीं थी।
 आज हिंसा की दिल दहलाने वाली घटनाओं से दुनिया भरी है। पता नहीं लोगों को यह क्यों कहना पड़ रहा है कि आंतक का कोई धर्म नहीं होता? इसमें कहने की बात क्या है? यह क्या बात हुई कि एक ईमानदार इंसान का बेईमानी से कोई संबंध नहीं होता। यह तो उसके ईमानदार होने में ही निहित है कि किसी तरह की बेईमानी का उससे कोई लेना-देना नहीं है। क्यों हमारी पीढिय़ां बेशकीमती जिंदगी को खूनखराबे में तबाह करने में लगी हैं? तो गड़बड़ कहां हुई है। मैं अपने मूल प्रश्न पर लौटता हूं-आखिर कोई विचार धर्म का रूप कब ले सकता है?

Tuesday 16 December 2014

अफसोस है, हैरत बिल्कुल नहीं


 पाकिस्तान में तालिबान की दरिंदगी पर अखबार आलोचनाओं से भरे हैं। टीवी पर बहसें गरमागरम हुई हैं। सोशल मीडिया पर लोगों का गुस्सा उबल रहा है। मगर पेशावर के आर्मी स्कूल की तस्वीरें देखकर मुझे बिल्कुल हैरत नहीं है। अफसोस जरूर है।  जिन्हें अपनी उम्र पूरी करनी थी, उन मासूम बच्चों के खौफ से झुके हुए सिरों में गोली पड़ते देखकर कलेेजा छलनी है मगर आश्चर्य नहीं है। इम्तहान देने आए बच्चों से किस चीज का इंतकाम लिया गया? वे अपने घरों से बस्ते-बोतल लेकर निकले थे। ताबूतों में लौटे। तहरीके तालिबान पाकिस्तान के प्रवक्ता मोहम्मद खुरासानी ने कहा कि हमलावरों को साफ हुक्म था कि बड़े बच्चों को मारंे। छोटे बच्चों को नहीं।

 इराक में इस्लामिक स्टेट (आईएस) को हमने पिछले कुछ ही महीनों में हैवानियत की सारी हदें पार करते देखा। उन्हाेंने सरेआम सैकड़ों की तादाद में जिंदा लोगों के सिर कलम किए। बच्चों के हाथों में हथियार थमाए। यजीदी औरतों को गुलाम बनाकर बेचा। ज्यादा वक्त नहीं बीता है जब नाइजीरिया में बोको हरम ने स्क्ूली बच्चियों को बंधक बनाया और उनके साथ शैतानी तरीके से पेश आए। अफगानिस्तान और पाकिस्तान में तालिबान के अलावा अल-कायदा, लश्करे-तैयबा जैसे अनगिनत नामों से दुनिया के कई हिस्से खून से लगातार तरबतर हैं। इस्लाम के अमन की दुनिया में हर दिन करीब 170 बेकसूर लोग बेमौत मारे जा रहे हैं। 
 मुझे हैरत इसलिए नहीं है क्योंकि दिल दहला देने वाले इस नरसंहार में मुझे नया कुछ भी नजर नहीं आया। आज की दुनिया का इतिहास हर दिन के अखबारों में छप रहा है। हैवानियत से भरे हमलों का अतीत न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेंड सेंटर से शुरू हुआ है। मुंंबई के ताज होटल पर खत्म। बात बहुत पहले से निकली है और बहुत दूर तक चली गई है।
 आपको अरब का इतिहास पढ़ने की जरूरत नहीं है। आपको यह जानने की भी जरूरत नहीं है कि छठवीं-सातवीं सदी में अरब में क्या घट रहा था? आप सिर्फ भारत का इतिहास ढंग से पढ़ लीजिए। आप सिंध से शुरू कीजिए। मोहम्मद बिन कासिम के साथ चलिए। फिर मेहमूद गजनवी और मुहम्मद गोरी पर आइए। सिलसिलेवार इनके हमलों पर गौर कीजिए। उन शहरों के किस्से किताबों में बड़ी तादाद में हैं, जिन्हें लगातार लूटा और बरबाद किया गया। फिर कुतुबुदीन ऐबक के साथ शुरू हुई दिल्ली की सल्तनत की हर हरकत पर निगाह रखते चलिए। अब सात सौ साल तक इनके चेहरे बदलते जाएंगे। कहानी एक जैसी चलती रहेगी।
 बीच-बीच में तैमूर, नादिर और अब्दालियों के अंधड़ खून की प्यासी मधुमख्खियों की तरह त्वचा पर हमले बोलेंगे और आत्मा तक को उधेड़कर छोड़ेंगे। दूसरे मजहबों को मानने वालों को थोक में नृशंसता के साथ मौत के घाट उतारना, उनके बीवी-बच्चों को गुलाम बनाना, उन्हें सामूहिक चिताओं में जलने के लिए विवश करना, उनके देवताओं को बेइज्जत करना और उनकी इबादतगाहों को उन्हीं की आंखों के सामने धूल में मिला देना, आखिर में ऐसी जलालत में मजबूर लाखों लोगों की बल्दियतंंे बदल देना और ऐसा देश के कोने-कोने में सदियों तक होते रहना। यही भारत का असल इतिहास है।

 जिन्होंने इस असलियत को इतिहास के एक उबाऊ विषय की तरह नहीं बल्कि अपने जख्मी इतिहास की तरह अपनी याददाश्त में टांगकर रखा है, पेशावर की घटना उनकी तकलीफ को बढ़ाएगी अवश्य मगर हैरत में बिल्कुल नहीं डालेगी। हमें थोथी बहस में पड़ने या भावुक होने की बजाए दिल पर हाथ रखकर उनके अगले कारनामे का इंतजार करना चाहिए। कोई नहीं जानता कि हैवानियत की अगली खबर दुनिया के किस कोने से आएगी?

कालसर्प योग

ये विवरण आप अपने विवेक से पढ़ें। ये महाराष्ट्र की मेरी यात्राओं के अनुभव हैं। मैं त्रयम्बकेश्वर का जिक्र कर रहा हूं , जो जन्मकुंडली और ज...