Tuesday 24 October 2017

श्रीलंका में सीता मंदिर की कहानी



 पांच साल तक लगातार भारत घूमने के बाद 2015 की शुरुआत में स्थिर हुआ। ढाई साल बाद अचानक दीपावली कवरेज के लिए  श्रीलंका जाने का योग बना। कारण था दीपावली पर वहां से सीता मंदिर की एक जगमगाती तस्वीर और कहानी। इस सफर में पहले फोटो एडिटर ओपी सोनी साथ जाने वाले थे लेकिन पासपोर्ट नहीं होने से वे पिछड़ गए और उदयपुर के ताराचंद गवारिया भारी बहुमत से नेता चुने गए। वे पासपोर्ट सहित दिल्ली में ही मौजूद थे। दिल्ली से सवा तीन घंटे की उड़ान से शाम सात बजे के पहले हम कोलंबो के भंडारनायके एयरपोर्ट पर उतरे। यहां से 175 किलोमीटर दूर है शानदार पहाड़ी पर्यटन केंद्र नुवारा एलिया, जहां हमेें जाना था।
 एयरपोर्ट पर करेंसी एक्सचेंज और टैक्सी करने में एक घंटा लगा होगा। आठ बजे के पहले हम निकले। रोहन नाम का स्थानीय ड्राइवर हमारा सारथी था। करीब सौ किलोमीटर का सफर सीधी सड़क का था। आगे के सत्तर किलोमीटर पहाड़ी रास्ते पर थे। जब नुवारा एलिया पहुंचे तो वहां ठंड और बारिश थी। हम तटवर्ती इलाकों की उमस के मौसम के हिसाब से सादे कपड़े ले गए थे। वहां थियागो से लगातार फोन पर बात होती रही थी। वे श्रीलंका के शिक्षा राज्यमंत्री एस. राधाकृष्णन के प्रेस सेक्रेटरी हैं। उन्होंने होटल की बजाए हमारे रुकने का इंतजाम अंग्रेजों की बनवाई एक कोठी में किया हुआ था। यह 1876 में बने हिल्स क्लब के पास थी, जहां एशिया के कुछ खास गोल्फ कोर्ट में से एक अब तक मौजूद था। अंग्रेज 6200 फुट ऊंचाई की सर्द वादियों में यहां चाय के बागान लगाने आए थे।
  1818 में वे तमिलानाडु से भी कुछ लोगों को लाए थे। थियागू बताते हैं कि तमिलनाडू से वे श्रीलंका के मन्नार किनारे से मातले होकर यहां तक लाए गए थे। मैंने एक दीपावली रामेश्वरम् से कवर की थी। तब धनुषकोडि जाने का मौका मिला था। यह रेतीला टापू रामेश्वरम से श्रीलंका की तरफ फैला हुआ है। तब मुरुगेशन नाम के स्थानीय ड्राइवर ने मुझे बताया था कि श्रीलंका के तट की यहां से दूरी सिर्फ 20 किलोमीटर है। यह वही जगह है जहां से राम ने युद्ध के लिए लंका प्रस्थान किया था। इसके लिए सेतु निर्माण धनुषकोडि के इसी कोने से किया गया था। मुरुगेशन पहले किसी शिपिंग कंपनी में काम करता था। उसने बताया था कि समुद्र के भीतर वे संरचनाएं अब तक सुरक्षित हैं, जो किसी प्राचीन सेतु के अस्तित्व का संकेत देती हैं। मुझे लगता है कि उस समय श्रीलंका और भारत के बीच की दूरी भी कम ही रही होगी। समुद्री जलस्तर बढ़ने से यह दूरी अब बीस किलोमीटर है। अंग्रेजों द्वारा काम के लिए लाग गए तमिलों के वंशज आज यहां बहुत बड़ी तादाद में और राजनीति में असरदार हैं। नुवारा एलिया की 15 लाख आबादी में से 10 लाख तमिल हैं। संसद की आठ सीटों में से पांच पर तमिल सांसद हैं। राधाकृष्णन इन्हीं में से एक हैं जो वर्तमान सरकार में शिक्षा राज्यमंत्री हैं। वे उस मंदिर ट्रस्ट के चेयरमैन भी हैं, जो सीता अम्मन टेंपल की देखरेख करता है। वे अगले दिन हमें ट्रस्ट के ऑफिस में मिले और मंदिर में रात की फोटोग्राफी की मंजूरी के साथ तैयारियों में भी हमारी मदद की। सीता मंदिर नुवारा एलिया शहर से करीब पांच किलोमीटर के फासले पर है। 
 थियागू के साथ हम सुबह करीब 11 बजे सीता मंदिर पहुंचे। श्रीलंका के इस दूरदराज कोने में हिंदी कोई नहीं जानता मगर हनुमान चालीसा की गूंज अयोध्या और चित्रकूट की अनुभूति करा रही थी। भारत में गुरुवार को दिवाली थी, यहां बुधवार को ही। दक्षिण भारतीय शैली के सीता अम्मन टेंपल में विशेष पूजन की तैयारियां थीं। बारिश और ठंड थी। हिंदी और तमिल में राम, सीता और हनुमान की स्तुतियां कड़कड़ाती ठंडी हवाओं में अमृत घोल रही थी।  हम यह सुनकर ही यहां आए कि राम के वनवास के दिनों में रावण ने सीता का हरण कर यहीं कहीं उन्हें रखा था। सामने गगनचुंबी पहाड़ियों पर कहीं अशोक वाटिका थी। यह एकमात्र मंदिर आज  लंका में सीता की उपस्थिति का प्रतीक है। ठंडे मौसम ने यहां आने का आनंद दो गुना कर दिया। ऐसी जगह कहां बार-बार आना होता। इसलिए हर पल को कैमरे में उतारना जरूरी है। हमने बारिश के रुकते और सूरज के बादलों से झांकते ही दिन की चमकती रोशनी में मंदिर की छवियां लीं। 
पुरोहित रामानंद गुरुक्कल ने राम, लक्ष्मण,सीता और हनुमान की प्राचीन प्रतिमाएं पांच हजार साल पुरानी बताईं। हम उनकी विशेष आरती के साक्षी बने। गुजरात और दिल्ली के कई श्रद्धालु भी आज यहां मिले। हम नुवारा एलिया से रात को फिर मंदिर लौटे। इस समय बारिश रुक-रुककर हो रही थी। बाहर हवा काफी तेज थी। दिन के समय घनी हरियाली की पृष्ठभूमि में देखे मंदिर का रूप इस समय एकदम अलग नजर आया। शाम ढलते ही इसकी अलग छटा नजर आई। हरियाली अंधेरे में छिप गई है और उस पहाड़ी सोते की आवाज लगातार गूंज रही है, जिसके बारे में कहते हैं कि सीता अशोक वाटिका से उतरकर यहीं स्नान के लिए आती थीं। पानी रुका तो हमने रात की रोशनी में सोने से दमकते मंदिर की यादगार तस्वीरें हर कोने से लीं। स्थानीय श्रद्धालु शाम सात के बाद यदाकदा ही आते हैं इसलिए इस वक्त पूरी तरह शांति थी। बेहतर फोटो के लिए रात की जगमग में हमने दीयों की खास रोशनी की। 
  युग बीत गए। उधर भारत की चेतना में राम बसे हैं तो इधर श्रीलंका की स्मृतियों में सीता भी सुरक्षित हैं। नुवारा एलिया के घुमावदार ऊंचे पहाड़ों की सघन हरियाली में ही कहीं अशोक वाटिका थी। दो दिशाओं में आधे आसमान तक ऊंचे ऐसे ही एक पहाड़ी कोने में सीता का मंिदर है। इस इलाके में कई मंदिर हैं मगर वानर सिर्फ सीता मंदिर में ही नजर आए। मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर अंदर तक हनुमान यहां वीर योद्धा के रक्षक रूप में अनेक प्रतिमाओं में हैं। मंदिर के पीछे एक चट्‌टान पर हनुमान के चरण चिन्ह भी हैं। एक खास किस्म का अशोक वृक्ष सीता निवास के इसी दायरे में मिलता है, जिसमें अप्रैल के महीने में लाल रंग के फूल आते हैं। गॉल नाम के क्षेत्र में ऐसी जड़ी-बूटियों की भरमार है, जो पूरे श्रीलंका में कहीं नहीं होतीं। कथा है कि हनुमान संजीवनी बूटी के लिए जिस पहाड़ को उठा लाए थे, उसमें आईं वनस्पतियों का ही यह विस्तार हैं। सिंहली आयुर्वेद में यह औषधियां आज भी वरदान मानी जाती हैं। देवुरुम वेला नाम की जगह के बारे में प्रचलित है कि यहीं सीता की अग्नि परीक्षा हुई थी। यहां की मिट्‌टी आश्चर्यजनक रूप से काली राख की परत जैसी है, जबकि देश भर में भूरी और हल्के लाल रंग की मिट्‌टी पाई जाती है। श्रीलंका के शिक्षा राज्यमंत्री वी. राधाकृष्णन मंदिर ट्रस्ट के चेयरमैन भी हैं। भास्कर से चर्चा में उन्होंने बताया-रावण की लंका का दहन यहीं हुआ। मिट्टी में मोटी काली परत स्थानीय लोकमान्यता में इसी दहन कथा से जुड़ती है। सीता की स्मृतियों से जुड़ा यह स्थान अब एक पवित्र तीर्थ बन चुका है। आस्था की दृष्टि से हमारे लिए यह स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भारत में अयोध्या।
सीता अशोक वाटिका में कितने समय रहीं: वनवास के 14 सालों में राम, लक्ष्मण और सीता ने कहां-कितना समय गुजारा और सीता कितने दिन लंका में रहीं? रामेश्वर में रह चुके और इन दिनों पंचवटी में मौजूद पंडित विष्णु शास्त्री कहते हैं कि भगवान ने वनवास के 12 वर्ष चित्रकूट में बिताए थे। लगभग एक वर्ष पंचवटी में रहे। यहीं से रावण ने सीता का हरण किया। यहीं से राम ने किष्किंधा की ओर प्रस्थान किया, जहां हनुमान और सुग्रीव से उनकी मित्रता हुई। बालि वध हुआ। रामेश्वर में जटायु के भाई संपाति ने ही सीता की तलाश में निकले वानरों को सीता का पता बताया था। फिर राम का रामेश्वरम आगमन, सेतु निर्माण और युद्ध के लिए लंका प्रस्थान के प्रसंग हैं। ऐसा अनुमान है कि लंका में सीता 11 माह रहीं। सीता मंदिर के एक ट्रस्टी एस. थियागु भी स्थानीय मान्यता के आधार पर इसकी पुष्टि करते हैं।
शुरू में मंदिर विरोध यहां भी: नुवारा एलिया श्रीलंका के सेंट्रल प्रोविंस में है। शिक्षाराज्य मंत्री वी. राधाकृष्णन अपकंट्री पीपुल्स फ्रंट के लोकप्रिय नेता हैं। बीस साल पहले भव्य सीता मंदिर के निर्माण को लेकर एक विरोध यहां भी हुआ। दरअसल स्थानीय बौद्ध सिंहली नहीं चाहते थे कि सीता के मंदिर को बड़ी पहचान मिले। तब राधाकृष्णन ही थे, जिन्होंने तमिलों को एकजुट कर मंदिर को भव्य रूप दिलाया। तत्कालीन पर्यटन मंत्री धर्मश्री सेनानायक मंदिर के लिए अलग से जमीन देने को राजी हुए। यहां मोरारी बापू की कथा हुई। कुंभाभिषेकम् में श्रीश्री रविशंकर आए। इसी महीने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन आकर गईं। अब हर दिन कई भारतीय यहां आते हैं। यह बात और है कि भारत में अयोध्या का राम मंदिर अब भी निर्माण के इंतजार में है और राम एक बदशक्ल टेंट में पनाह लिए हुए हैं।
हर महीने श्रीलंका में पोएडे यानी पूजा का एक दिन तय है। इस दिन देशभर के मदिरालय बंद रहते हैं और लोग शाकाहार पर जोर देते हैं। सीता अम्मन टेंपल में तब सबसे ज्यादा चहलपहल होती है। सैकड़ों पर्यटक भी स्थानीय श्रद्धालुओं के साथ मिथिला के राजा जनक की बेटी और अयोध्या के राजा राम की अर्धांगिनी सीता की कहानी रावण की लंका के इस कोने में आकर सुनते हैं और बुराई पर अच्छाई की जीत की प्रतीक राम-रावण के युद्ध की कथा स्मृतियों में ताजा हो जाती है। जनवरी में पोंगल के एक महीने पहले से तमिल समाज के गांव-गांव में भजन गाए जाते हैं। 15 जनवरी को पूर्णाहुति पर शोभायात्रा निकलती है। राम के दूत के रूप में हनुमानजी ने यहीं अशोक वाटिका में मुद्रिका भेंट की थी। यह दिन रिंग फेस्टीवल के रूप में प्रसिद्ध है।
 अगले दिन हम दोपहर में निकले। रास्ते में कैंडी नाम का एक शहर है, जहां के एक पुराने बौद्ध मंदिर में जाने का अवसर मिला। इस मंदिर के पत्थर बता रहे थे कि ये करीब हजार साल पुराने तो होंगे ही। दो लोगों को भीतर जाने की एवज में श्रीलंका की मुद्रा में 1500 रुपए लगे। बुद्ध का धर्म भारत की तुलना में यहां के सिंहली मूल निवासियों ने बहुत अच्छी तरह से सहेजा हुआ है। सबसे पहले मौर्य सम्राट अशोक के बेटे-बेटी महेंद्र और संघमित्रा बाेधि वृक्ष का अंश लेकर आए थे। मंदिर के भीतर पीतल की प्लेटों में सदियों पुराने वे वृत्तांत दर्ज थे, जब भारत से बुद्ध के दांतों के अवशेष लेकर भिक्षु गए होंगे। चौराहों और तिराहों पर बुद्ध की शानदार मूर्तियां दिखाई दीं, जिनका रखरखाव भारत के तिराहों-चौराहों पर सजी नेताओं की मूर्तियों से कहीं ज्यादा बेहतर था। कैंडी के रास्ते के शहरों में नई मस्जिदें भी आकार ले रही थीं। नुवारा एलिया में भी मेनरोड पर एक मस्जिद थी। जबकि तीस हजार आबादी के इस छोेटे से शहर में बहुत कम मुस्लिम आबादी है।


 

Friday 13 October 2017

पदमावती देखने के पहले इसे जरूर पढ़िए



‘उसे किसी ज्ञान-विज्ञान से संबंध न था। वह कभी किसी आलिम के साथ उठा-बैठा भी न था। पत्र लिखना-पढ़ना भी नहीं जानता था। वह क्रूर स्वभाव, कठोर अंत:स्थल वाला और पाषाण ह्दय था। जितनी कामयाबी उसे मिलती गई, वह उतना ही मदांध होता गया...’
-जियाउद्दीन बरनी ने तारीखे-फिरोजशाही में यह बात सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के बारे में कही।
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कला के कारोबारी संजय लीला भंसाली की कुछ फिल्मंे मैंने देखी हैं। इतिहास के पसंदीदा टुकड़ों को अपनी आजाद ख्याली से जोड़कर ढाई घंटे की एक कहानी में परोसने में वे वैसे ही कुशल हैं, जैसा सिनेमा के एक कामयाब कारोबारी को होना चाहिए। इन दिनों उनकी नई फिल्म पदमावती सुर्खी में है। इतिहास का एक विद्यार्थी होने के नाते मेरी दिलचस्पी इसमें है कि संजय सिनेमा के परदे की लीला में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को किस तरह पेश करने वाले हैं।
मेरी दिलचस्पी रानी पद्मिनी में नहीं है। वह भारत के इतिहास की राख और धुएं की कहानी में एक दर्दनाक किरदार है। एक भारतीय होने के नाते मैं पद्मिनी के हश्र का एक हिस्सेदार और जिम्मेदार खुद को महसूस करता हूं। पद्मिनी चित्तौड़ के अासमान से गंूजी आंसुओं से भीगी एक पुकार है। सदियों बाद भी उस चिता की आग की गरमाहट अब तक मेरे विचारों में तपती है, जिसमें चित्तौड़ की हजारों राजपूत औरतें जिंदा जल मरने के लिए उतर गई थीं। उस दिन चित्तौड़गढ़ के किले पर अलाउद्दीन खिलजी की आहट थी।
सदियों तक इस्लाम का परचम फहराते हुए आए हमलावरों को हिंदुस्तान माले-गनीमत में मिला था। मुस्लिम सुलतानों और बादशाहों की फौजों से हारने पर बेहिसाब लूट, मंदिरों की तोड़फोड़, जुल्म, गुलामी और जबरन धर्म परिवर्तन के किस्से इतिहास में बिखरे हुए हैं। तब युद्ध हारने की हालत में राजपूत औरतों की सामूहिक आत्महत्याएं इतिहास में जौहर के नाम से लिखी गई हैं। ऐसे अनगिनत जौहर हुए हैं। राजस्थान के आसमान पर जौहरों का गाढ़ा काला धुआं सदियों तक देखा गया है। मेरे मध्यप्रदेश के चंदेरी और रायसेन में भी जौहर हुए हैं। हमारी आज की पीढ़ी की याददाश्त से यह सब गुम है। आखिरकार अलाउद्दीन खिलजी के करीब 225 साल बाद अकबर के समय राजस्थान की ज्यादातर रियासतों ने मध्यमार्ग अपनाया। यह शांति और समझाैते का रास्ता था। एकतरफा रिश्तों की शक्ल में एक ऐसा समझौता, जिसमें राजपूत राजाओं ने अपनी बहन-बेटियों को दिल्ली के बादशाहों के हरम में भेजा और अपनी रियासतों को बार-बार के हमलों, लूट और बरबादी से बचाने में कुछ हद तक कामयाब हुए।
मुझे जयपुर में इतिहास के एक जानकार ने बताया था कि सिर्फ अकबर के हरम में राजस्थान के करीब 40 राजघरानों की लड़कियां भेजी गईं थीं। आमेर राजघराने की जोधाबाई इनमें से एक थीं। हालांकि अकबर तो दोतरफा रिश्ते चाहता था। यानी मुस्लिम शाही वंश की लड़कियांें को भी राजपूत अपनाएं। मगर धर्म के अंधे राजपूतों को यह मंजूर नहीं था। वे खुश होकर एक हाथ से ताली बजाते रहे। यानी अपनी लड़कियों के डोले दिल्ली भेजते रहे। तब भी चित्तौड़ अकेला था, जो नहीं झुका। चित्तौड़गढ़ ने इसे अपमानजनक माना और कभी बादशाही ताकत के आगे घुटने नहीं टेके। अपनी अडिग नीति के कारण ही पूरे देश के मानस में आज भी चित्तौड़गढ़ नसों में लहू का प्रवाह तेज कर देता है, जहां सबसे पहले पद्मिनी को अलाउद्दीन के हाथों में पड़ने बेहतर यह लगा कि वे धधकती आग में जलकर मर जाएं। जयपुर में बसे चित्तौड़गढ़ के लोग आज भी गर्दन ऊँची करके बात करते हैं। वे आपको अपने दिल में राज करने वाले महाराणा प्रताप और अकबर के सेनापति बने जयपुर के राजा मानसिंह का फर्क बताएंगे।
 मैंने भारत के मुस्लिम शासकों के बारे में काफी कुछ पढ़ा है। मेरे अपने संग्रह में ढेरों किताबें हैं। खासकर दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद शुरू हुए सुलतानों और बादशाहों के दुर्गम दौर का इतिहास, जो 1193 से शुरू होता है और अंग्रेजों के काबिज होने तक चलता है। दिल्ली में आप इसे बहादुरशाह जफर तक गिन सकते हैं, लेकिन औरंगजेब के बाद यानी 1707 के बाद से ही उनका सितारा डूबने लगा था।
यहां मैं अपनी बात सिर्फ अलाउद्दीन खिलजी पर केंद्रित रखूंगा, जिसने कुलजमा 21 साल दिल्ली में सुलतानी की। वह 1296 में अपने चाचा-ससुर जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से कत्ल करके दिल्ली पर कब्जा करने आया। इसके पहले जलालुद्दीन ने उसे इलाहाबाद के पास कड़ा का हाकिम बनाया था। कड़ा की जागीर में रहते हुए जलालुद्दीन की इजाजत के बिना उसने पहली बार विदिशा पर हमला किया। मंदिर तोड़े और जमकर लूट की। विदिशा में ही उसे किसी ने देवगिरी का पता यह कहकर बताया कि यहां तो कुछ भी नहीं है। माल तो देवगिरी में है। दूसरी दफा वह जलालुद्दीन को बरगलाकर देवगिरी को लूटने में कामयाब हुआ। यहां उसे बेहिसाब दौलत मिली। अब उसने दिल्ली का सुलतान बनने का ख्वाब देखा। तब तक जलालुद्दीन को भी अपने धोखेबाज भतीजे के इरादों का पता चला। फिर भी उसे भरोसा था कि उसका दामाद अलाउद्दीन, जो उसका सगा भतीजा भी है हुकूमत के लालच में नहीं पड़ेगा। मान जाएगा।
दोनों के बीच समझौते की बातचीत गंगा नदी के किनारे एक शिविर में तय हुई। वह घात लगाए ही था। उसने बूढ़े और निहत्थे जलालुद्दीन का कत्ल धोखे से रमजान महीने में इफ्तारी के वक्त किया। बेरहमी से उसका सिर काटकर अलग किया गया और एक भाले पर टांगकर कड़ा-मानिकपुर के अलावा अवध में घुमाया गया। उस दौर में दुश्मनों के सिर काटकर इस तरह बेइज्जत करना कोई नहीं बात नहीं थी मगर जिस चाचा-ससुर और सुलतान ने उसकी बचपन से परवरिश की और अपनी बेटी दी, उसके इस तरह कत्ल किए जाने पर कई लेखकों ने भी अलाउद्दीन को बुरा-भला कहा। जियाउद्दीन बरनी का चचा अलाउलमुल्क अलाउद्दीन के समय दिल्ली का कोतवाल था। बरनी ने इस घटना का ब्यौरा विस्तार से लिखा है। अलाउद्दीन यहीं नहीं रुका। उसने जलालुद्दीन के दो बेटों अरकली खां और रुकनुद्दीन को अंधा करने के बाद कत्ल किया।
जब अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ तो उसे मालूम था कि लोग सुलतान की हत्या से बेहद नाराज हैं। अलाउद्दीन ने अपना जलवा दिखाने के लिए देवगिरी से लूटा गया सोना और जवाहरात सड़कों पर लुटाए। उसने हर पड़ाव पर हर दिन पांच मन सोने के सितारे लुटवाए। जलालुद्दीन के सारे भरोसेमंद दरबारियों को मुंह बंद रखने की मोटी कीमत चुकाई। सबको बीस-बीस मन सोना दिया गया। सबने उसकी सरपरस्ती चाहे-अनचाहे कुबूल की। 1296 में वह दिल्ली का सुलतान बना। उसके समकालीन इतिहासकार बताते हैं कि वह निहायत ही अनपढ़ था। उसे कुछ नहीं आता था। मगर वह कट्‌टर मुसलमान था। उसकी दाढ़ में भारत के राजघरानों की पीढ़ियों से जमा दौलत का खून विदिशा और देवगिरी में लग चुका था। आखिर उसे देवगिरि में मिला क्या था? देवगिरी की उस पहली लूट का हिसाब जियाउद्दीन बरनी ने यह लिखा है-देवगिरी के घेरे के 25 वें दिन रामदेव ने 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन जवाहरात, लाल, याकूत, हीरे, पन्ने, एक हजार मन चांदी, चार हजार रेशमी कपड़ों के थान और कई ऐसी चीजें जिन पर अक्ल को भरोसा न आए, अलाउद्दीन को देने का प्रस्ताव रखा।
यहां से खुलेआम लूट और कत्लेआम का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जो 1316 में अलाउद्दीन के कब्र में जाने तक पूरे भारत में लगातार चलता रहा। अलाउ्दीन खिलजी के करीब 340 साल बाद औरंगजेब ने भी सन् 1656 में ऐसी ही एक खूंरेज लड़ाई में अपने सगे भाइयों का कत्ल और बाप को कैद करके हिंदुस्तान की हुकूमत पर कब्जा किया था। जब आप पहले से कोई राय कायम किए बिना तफसील से अलाउद्दीन और आैरंगजेब के इतिहास को पढ़ेंगे तो पाएंगे दोनों एक जैसे धोखेबाज, क्रूर और कट्‌टर थे। औरंगजेब ने 50 साल तक राज किया। अलाउद्दीन ने 20 साल। भारत की तबाही में अलाउद्दीन औरंगजेब से काफी आगे और भारी दिखाई देगा। अलाउद्दीन के हमलों ने भारत की आत्मा को आहत किया।
 सुलतान बनने के बाद उसने एक बार उलुग खां को गुजरात पर हमला करने का हुक्म दिया। तब गुजरात का राजा करण था। अलाउद्दीन के इतिहासकार लिखते हैं कि करण हार के डर से देवगिरी चला गया। उलुग खां के हाथ करण का खजाना और रानी कमलादी लगी। कमलादी को दिल्ली लाया गया और सुलतान के सामने पेश किया गया। अब कमलादी सुलतान की संपत्ति थी। कमलादी की दो बेटियां थीं। एक मर चुकी थी अौर छह महीने की दूसरी बेटी गुजरात में ही छूट गई थी। उसका नाम था देवलदी। उसे दिवल रानी भी कहा गया है। एक बार मौका देखकर कमलादी ने सुलतान को खुश करते हुए अपनी बिछुड़ी हुई बेटी से मिलने की ख्वाहिश की। नन्हीं देवलदी को दिल्ली लाया गया। उसकी परवरिश सुलतान के ही महल में कमलादी के साथ हुई।
जब अलाउद्दीन के महलों में यह सब चल रहा था तब उसका एक बेटा खिज्र खां 11 साल का था। दिल्ली में बड़ी धूमधाम से उसकी शादी अलाउद्दीन खिलजी के ही एक करीबी सिपहसालार अलप खां की बेटी से हो चुकी थी। मगर वह देवलदी को भी चाहता था। दोनों साथ ही पले-बढ़े थे। आखिरकार एक दिन चुपचाप देवलदी से भी उसकी शादी हो गई। न कोई जश्न हुआ। न शादी जैसा कुछ। आप सोचिए-सुलतान अलाउद्दीन ने कमलादी को रखा। उसकी बेटी को अपने बेटे के साथ रख दिया! अमीर खुसरो ने खिज्र खां और देवलदी के बारे में खूब लिखा है! वह अपने समय की इन घटनाओं का चश्मदीद था।
भारत को लगातार लूटने की अलाउद्दीन की हवस की अपनी वजहें थीं। 1311 में दक्षिण भारत की लूट का हिसाब देखिए-मलिक नायब 612 हाथी, 20 हजार घोड़े और इन पर लदा 96 हजार मन सोना, मोती और जवाहरात के संदूक लेकर दिल्ली पहुंचा। सीरी के राजमहल में मलिक नायब ने सुलतान के सामने लूट का माल पेश किया। खुश होकर सुलतान ने दो-दो, चार-चार, एक-एक और अाधा-आधा मन सोना मलिकों और अमीरों को बांटा। दिल्ली के तजुर्बेकार लोग इस बात पर एकमत थे कि इतना और तरह-तरह का लूट का सामान इतने हाथी और सोने के साथ दिल्ली आया है, इतना माल इसके पहले किसी समय कभी नहीं आया। अलाउद्दीन खिलजी के हर हमले और लूट के ऐसे ही ब्यौरे हैं। इनमें बेकसूर हिंदुओं की अनगिनत हत्याओं के विवरण रोंगटे खड़े करने वाले हैं, जब नृशंस खिलजी के सैनिक हारे हुए हिंदुओं के कटे हुए सिरों को गेंद बनाकर चौगान खेला करते थे।
अलाउद्दीन खिलजी ने जो बोया, वह जनवरी 1316 में उसकी मौत के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी औलादों ने अपने खून की हर बूंद के साथ काटा। सुलतान के ही भरोसेमंद नायब मलिक काफूर ने हिसाब बराबर किया। खिलजी की फौज को लेकर कफूर ने कई बड़ी दिल दहलाने वाली फतहें हासिल की थीं। सुलतान की मौत के पहले ही मलिक कफूर ने सुलतान के कई भरोसेमंद लोगांे को मरवाना शुरू कर दिया था। इसमें अलप खां भी शामिल था। खिज्र खां को उसने ग्वालियर के किले में कैद किया, जहां देवलदी भी उसके साथ थी। जब सुलतान मरा ताे मलिक काफूर ने सुंबुल नाम के एक गुलाम को ग्वालियर भेजकर खिज्र खां को अंधा करा दिया। सुलतान के दूसरे बेटे शहाबुद्दीन को भी मरवा दिया गया। शहाबुद्दीन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और देवगिरी के राजा रामदेव की बेटी झिताई का बेटा था। रामदेव को भी उसने कई बार लूटा और बेइज्जत किया था। मलिक कफूर सिर्फ 35 दिन जिंदा रह सका, अलाउद्दीन के लोगों ने उसे भी खत्म कर दिया।
 फिल्म देखने के पहले जान लीजिए कि जियाउद्दीन बरनी ने बताया है कि खिलजी के आदेश लागू होने के बाद हिंदुओं के पास सोना, चांदी, तनके, जीतल और धन-संपत्ति का नामोनिशान नहीं रह गया था। वह घोर गरीबी में आ गए थे। बड़े घरों की औरतों को भी मुसलमानों के घरों में काम के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी हालत ऐसी बना दी गई थी कि वे घोड़े पर न बैठ सकें, हथियार न रख सकें, अच्छे कपड़े न पहन सकें और बेफिक्र से जिंदगी न जी सकें।
अब मैं इत्मीनान से संजय लीला भंसाली की फिल्म को देखना चाहंूगा। और आप भी इस रोशनी में देखिएगा कि अगर सिनेमा एक कला है तो इस कला का इस्तेमाल भंसाली क्या बताने के लिए कर रहे हैं?
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खिलजी की 21 साल की हुकूमत: हमले, लूट, खूनखराबा, कत्लोगारत...
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-25 फरवरी 1296 : सुलतान बनने से पहले देवगिरी पर हमला और लूट
-18 जुलाई 1316 को देवगिरी से लौटकर उसने जलालुद्दीन की हत्या की।
-21 अक्टूबर 1396 को दिल्ली पहुंचा और जमकर लूट का सोना लुटाया।
-23 फरवरी 1299 को सोमनाथ पर हमले का हुक्म। फौज ने रास्ते में मार्च से जुलाई तक राजस्थान में रणथंभौर को लूटा। हिंदुओं का कत्ल। यहां भी राजपूत औरतों ने जौहर किया। गुजरात में सोमनाथ का मंदिर तोड़ा गया।
-28 जनवरी 1303: चित्तौड़ पर हमले का फैसला। इसी साल अगस्त में हमला। 30 हजार हिंदुओं का कत्ल। चित्तौड़ का नाम अपने बेटे खिज्र खां के नाम पर खिज्राबाद किया। खिज्र खां की ताजपोशी।
-23 नवंबर 1305: पूरा मालवा और मांडू रौंद डाला।
-24 मार्च 1307: एक बार फिर देवगिरी पर हमला।
-3 जुलाई 1308: सिवाना को घेरकर फतह।
-31 अक्टूबर 1309: तेलंगाना के लिए कूच। इस एक ही बार के अभियान के बाद खिलजी की फौजें 23 जून 1310 को लूट के बेहिसाब माल के साथ दिल्ली लौटीं।
-18 नवंबर 1310: माबर के लिए कूच। यह दक्षिण भारत का जबर्दस्त अभियान था। अमीर खुसरो ने इसे दिल्ली से एक साल की दूरी पर बताया है। पहली बार इन इलाकों में कोई मुस्लिम हमलावर गया। इसी धावे में फरवरी 1311 देवगिरी भी पहुंचा। अक्टूबर 1311 में फौजें कई रियासतों को रौंदते हुए दिल्ली लौटीं।
-4 जनवरी 1316 :अलाउद्दीन खिलजी की मौत।
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ये सारे विवरण खिलजी के समय के लेखकों के दस्तावेजों में हैं। इनमें जियाउद्दीन बरनी, अमीर खुसरो और उनके बाद के फरिश्ता के नाम उल्लेखनीय हैं।
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Saturday 23 September 2017

इभ्या से मिलिए

 राजस्थान में चित्तौड़गढ़ से 40 किलोमीटर दूर कपासन गांव में है इभ्या का ननिहाल। बीते अगस्त के अंत में इस बच्ची की तरफ अचानक देश का ध्यान गया। वह सिर्फ दो साल दस महीने की है। इस उम्र में कोई क्यों मीडिया में सुर्खी बनेगा। इभ्या अपने माता-पिता के कारण चर्चा में आई। पिता सुमित राठौर की उम्र 35 साल है। वे मध्यप्रदेश के नीमच के एक मालदार कारोबारी श्वेतांबर जैन परिवार के हैं। उनकी पत्नी अनामिका कपासन की हैं। अनामिका के पिता अशाेक चंडालिया चित्तौड़गढ़ में दस साल बीजेपी के जिला अध्यक्ष रहे हैं। चंडालिया एक जाना-माना परिवार है।

  यह परिवार जैन तीर्थंकरों की परंपरा में श्वेतांबर हैं। श्वेतांबरों में भी दो शाखाए हैं-मंदिर मार्गी और साधु मार्गी। वे साधु मार्गी श्वेतांबर हैं। ये मंदिरों में तीर्थंकरों की मूर्तियां पूजने की बजाए अपने आचार्यांे को सुनते हैं। हर चातुर्मास में पर्यूषण पर्व के समय आठ दिन आचार्य के आसपास ही रहते हैं। आचार्य देश के किसी भी कोने में हों। साधनों ने दूरियों और अहमियत कम कर दी है। उनके आचार्य रामलाल सूरत में चातुर्मास के लिए आए। इस साल यहां उन्होंने करीब दस दीक्षाएं दी हैं। इनमें सुमित-अनामिका एकमात्र दंपत्ति हैं। चार साल पहले ही तो शादी हुई थी। एक छोटी सी बच्ची है उनकी। इभ्या उसी का नाम है।

 सुमित-अनामिका की दीक्षा की खबर फैलते ही इभ्या से मिलने के लिए भोपाल से नीमच जाने का योग बना। पता चला कि वह तो ननिहाल में है। कपासन में। बिना रुके मैं शाम सात बजे तक चित्तौड़गढ़ पहुंचा तब तक स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता रामेश्वर शर्मा अशोक चंडालिया को मेरे आने की सूचना देने के साथ मुलाकात का निवेदन कर चुके थे। रात अाठ बजे उन्होंने मुझे कपासन में वक्त दिया। तय वक्त पर मैं इस बस्ती में पांच बत्ती चौराहे के पास बिजली के सामान की एक पुरानी दुकान पर बैठा था, जहां संयाेग से पांचों चंडालिया भाइयों से मेरी एक साथ मुलाकात हुई। हम आधे घंटे से ज्यादा बैठे। इस बीच मैंने इभ्या के दर्शन की इच्छा प्रकट की। उसे घर से लाया गया। वह नींद में थी। अनिच्छा से उठाकर लाए जाने से नाराज और इस हालत में दूर से आए किसी अजनबी से तो खुश होकर मिलने का कोई सवाल ही नहीं था। वह मेरे पास गोद में भी नहीं आई। नाम तक नहीं बताया। पूरे समय रूठी रही। मैंने उसको सॉरी कहा। उसके नन्हें से पैर छुए। उसने कोई भाव नहीं दिए।
 चंडालिया बंधुओं से सत्संग में कहानी कुछ यह पता चली- पिछले महीने आचार्यश्री रामलाल के प्रवचन सुनने के लिए सुमित और अनामिका एक साथ ट्रेन से निकले थे। इसी ट्रेन में चित्तौड़गढ़ से अशोक चंडालिया सपत्नीक सवार थे। नीमच में बेटी, दामाद और नातिन इभ्या साथ हो लिए। उस सफर में सुमित उन्हें अपनी पहली बड़ी कारोबारी कामयाबी के किस्से सुना रहे थे। वे खुश होकर बता रहे थे कि उनका बिजनेस अच्छा चल रहा है। ग्रीस से उन्हें सीमेंट पैकिंग के 32 लाख बैग एक्सपोर्ट करने का पहला ऑर्डर भी मिला है। नीमच में फैक्ट्री सुमित ने ही 2013 में शादी के बाद शुरू की थी। सुमित के बड़े भाई अमित अपनी दोनों बेटियों के साथ गुरुग्राम में रहते हैं। नीमच में उनके पिता राजेंद्र राठौर और मां सुमन राठौर हैं। अपने काबिल दामाद की यह कामयाबी पर्यूषण के लिए निकले अशोक चंडालिया को एक बड़ा शुभ समाचार था। कपासन में वे पांच भाइयों में बीच के हैं। कारोबारी चंडालिया परिवार चार पीढ़ियाें से कपासन में है। पीपली बाजार के दूगड़ मोहल्ले में उनकी रिहाइश भी एक साथ है। होनहार दामाद ने इतनी बढ़िया खबर देकर आचार्य से भेंट के पहले ही उन्हें खुश कर दिया था।
 मगर कल किसने देखा है? 22 अगस्त की सुबह सुमित ने सबको चौंकाया। उन्होंने आचार्यजी की सभा में कहा-मुझे दीक्षा दीजिए!  उस दिन अशोक चंडालिया, अनामिका और इभ्या सभा में पीछे बैठे थे। सुमित आगे थे। जब यह समाचार पीछे पहुंचा कि सुमित ने दीक्षा का भाव प्रकट किया है तो उनके परिवारजन फौरन आगे आए। इसका अंदाजा उन्हें आते वक्त बिल्कुल नहीं था। 28 अगस्त के सबके रिटर्न टिकट भी साथ ही थे। अशोक याद करते हैं-हमने देखा कि सुमित राजेशमुनि के साथ चल दिए थे। बाद में हम सबने उन्हें समझाया कि अभी दीक्षा लेना बहुत जल्दबाजी होगी। बच्ची छोटी है। मगर वे नहीं माने।
 श्वेतांबरों में रिवाज है कि अविवाहित की दीक्षा के लिए माता-पिता और विवाहित की दीक्षा के लिए पति या पत्नी की लिखित अनुमति जरूरी है।  सुमित के लिए अनामिका की अाज्ञा जरूरी थी। अनामिका से पूछा गया तो उसने कहा-मेरी आज्ञा तभी है, जब मैं स्वयं साथ में दीक्षा लूं। आचार्य ने सुमित से सिर्फ इतना कहा-आपकी भावना उत्कृष्ट है। धर्म के प्रति सजग हैं। मगर कुछ समय रुकना चाहिए। करीब दो घंटे तक समझाइश का दौर चला। सुमित इतने उतावले थे कि बोले-हमारा समय क्यों खराब कर रहे हैं। दो घंटे और निकाल दिए! अगले दिन राठौर अौर चंडालिया परिवार के कई रिश्तेदार वहां पहुंचे। दोनों को समझाया। मगर सुमित और अनामिका नहीं माने। अशोक बताते हैं कि हमारे शास्त्रों के अनुसार नौ वर्ष की आयु में कोई भी दीक्षा का निर्णय ले सकता है। इस उम्र में उसकी समझ को पक्का माना जाता है।
 मेरी जिज्ञासा यह जानने की थी कि जिस पल सुमित ने दीक्षा का भाव प्रकट किया तब सभा में उनके आसपास हो क्या रहा था? वे क्या कर रहे थे? अगस्त की उस उमस भरी सुबह आचार्य रामलाल भगवान श्रीकृष्ण के भाई गजसु कुमार की दीक्षा का प्रसंग सुना रहे थे। गजसु दस साल के थे। द्वारिका में भगवान अरिष्टनेमि आते हैं। लोग उनके दर्शन करने गए। स्वागत के लिए श्रीकृष्ण और गजसु भी पहुंचे। महल में लौटकर मां देवकी को वे बोले-हमने भगवान अरिष्टनेमि के दर्शन किए। मां ने कहा-इससे आपकी आंखें पवित्र हुईं। वे बोले-हमने उनकी वाणी सुनी। मां  ने कहा-आपके कान पवित्र हुए। वे बोले-हमने वाणी को हदय में उतारा। मां ने खुश होकर कहा-आपका ह्दय पवित्र हुआ। गजसु ने कहा-हमने उनकी शरण में जाने का निर्णय लिया है। यह सुनकर देवकी बेहोश हो गईं। गजसु छोटे थे। उन्हांेने अपने किसी बच्चे को बचपन में खिलाया नहीं था। गजसु दीक्षा की बात भूल जाएं इसके लिए कृष्ण ने उन्हें एक दिन के लिए द्वारिका का राजा बनाया। अभिषेक हुआ। राजा के रूप में गजसु ने पहला आदेश दिया-दीक्षा की प्रक्रिया आरंभ की जाए! जैन दर्शन में यह एकमात्र उदाहरण है जब दीक्षा होते ही किसी को ज्ञान प्राप्त हुआ हो।
 20 हजार आबादी वाले कपासन में श्वेतांबर जैनियों के डेढ़ सौ परिवार हैं। यहां किसी युवा का दीक्षा लेना यहां कोई बड़ी खबर नहीं है। दीक्षा की परंपरा पुरानी है। चंडालिया परिवार में ही 1982 में कांताजी की दीक्षा हुई थी। वे अशाेक चंडालिया की भतीजी थीं। उनका नामकरण हुआ मुक्ताश्रीजी। दीक्षा बाद दो चातुर्मास में वे कपासन आईं थीं। वर्ष 2002 में यहां की दो लड़कियों ने श्रीगंगानगर में दीक्षा ली।  पड़ोस में ही दूगड़ परिवार है। दस साल में उनकी दो बेटियों की दीक्षा हुई। 2007 में बीस वर्ष की हैप्पी, जिनका बाद में प्रखरश्रीजी नाम हुआ और अभी 2017 में सूरत में ही हैप्पी की छोटी बहन अंकिता, जिनका अब अविकारश्रीजी नाम है। अंकिता  ने तो उदयपुर से एमबीए करने के बाद दीक्षा ली।  प्रखरश्रीजी दीक्षा के बाद एक बार चातुर्मास में कपासन आईं थीं। जो आचार्य रामलाल सुमित-अनामिका को दीक्षा देंगे, उनके गुरू आचार्य नानालाल कपासन के पास के ही एक गांव के रहने वाले थे। उनकी दीक्षा भी दशकाें पहले कपासन में ही हुई थी।

 मैं 16 सितंबर की रात कपासन में चंडालियाजी के साथ था। आते समय मुझे भय था कि पता नहीं वे मिलना चाहेंगे या नहीं। मगर वे खुलकर मिले। चाय से स्वागत किया। सारे सवालों के जवाब दिए। मगर मेरा ध्यान इभ्या पर था। तब वह जा चुकी थी। रात के दस बजने वाले थे। विदा लेने के पहले मैंने बहुत संकोच के साथ अशोकजी से अगली सुबह उनके घर मिलने का आग्रह किया। मैं इभ्या को उसके खुशहाल ननिहाल में देखना चाहता था। वे समझ गए। सुबह नौ बजे का वक्त उन्होंने दिया। आधा घंटा मुझसे मिलकर वे समता भवन निकलने वाले थे, जहां इस चातुर्मास में साधु-साध्वी ठहरे हुए हैं। उनके प्रवचन साधुमार्गी श्वेतांबरों के दिन की उम्दा शुरुआत होती है।
 मैं पांच मिनट पहले ही घर जा पहुंचा। पीपली बाजार के दूगड़ मोहल्ले में आप भी चलिए। इभ्या के ननिहाल में। उसके पिता सुमित राठौर की सूरत में एक नई जिंदगी शुरू होने वाली थी। संसार का सारा वैभव त्यागकर वे तीर्थंकरों के बताए तौर-तरीकों पर चलेंगे। अब उनका पूरा जीवन व्रत जैसा बीतेगा। जरा सोचिए-अब वे कभी स्नान तक नहीं करेंगे। किसी ऐसे कमरे में कभी नहीं ठहरेंगे, जहां एक बल्ब या पंखा भी लगा हो। वे नंगे पैर हमेशा पैदल ही चलेंगे। कठोर दिनचर्या का ज्यादा समय अध्ययन और तप में बीतेगा। यह ज्यादातर मालदार हिंदू धर्मगुरुओं, कथा वाचकों और प्रवचनकारों की तरह ऐश्वर्यपूर्ण धर्म का किस्से-कहानियों और मधुर गीतों से गूंूजता हुआ सुगंधित मार्ग नहीं है। मैं यहां आसाराम बापू, रामपाल और राम-रहीम को याद करना नहीं चाहता, न ही उन संतों का जो भांग की गोलियां औश्र खीर के कटोरे गटकते हैं। तो  कल तक करोड़ों में खेलने वाले और हर संभव सुख-सुविधा में जीने के आदी किसी भी इंसान के लिए ऐसी जिंदगी आसान नहीं है। क्या सिर्फ भावुकता में उन्हाेंने ऐसा फैसला ले लिया? क्या आने वाले समय के कष्ट उन्हें अपने फैसले पर पछतावे का मौका देंगे? कुछ कह नहीं सकते।
 इभ्या तो जैसे सबसे बेखबर थी। इस सुबह भी वह बहुत अनमनी थी।  इभ्या का नया जीवन तो 22 अगस्त को ही आरंभ हो चुका है, जब सूरत में सुमित-अनामिका ने दीक्षा लेने का निर्णय लिया और भरी सभा में संसार से विरक्त होकर अज्ञात दिशा में कदम बढ़ा दिए। पीछे पलटकर भी नहीं देखा। इभ्या की निगाहों में नहीं झांका। और अब उनका किसी से कोई रिश्ता नहीं होगा। इभ्या से भी नहीं। कोई नहीं जानता कि इभ्या उन्हें फिर कभी देख पाएगी या नहीं। माता-पिता के रूप में कभी नहीं। (मेरी मुलाकात के एक हफ्ते बाद दीक्षा के पहले से तय कार्यक्रम में शनिवार को कानूनी अड़चन के कारण मां अनामिका की दीक्षा टल गई।)ब
  जब मैं उससे मिला मुझे लगा कि सूरत से कपासन लौटने के बाद उसके मन में मम्मी-पापा की आखिरी छवि बहुत धुंधली सी  होगी। उसे अहसास भी नहीं होगा कि उसकी जिंदगी में कितना बड़ा फैसला उसके मां-बाप ले चुके हैं। लेकिन नाना का घर उसके लिए नया नहीं है। यहां सब चेहरे जाने-पहचाने हैं। इभ्या के पांच नानाओं के संयुक्त परिवार में सात मामा हैं। तीन मामियां हैं। इभ्या की उम्र के सौम्य और कनन हैं। अशोक चंडालिया के पोते-पोती। इन दिनों इभ्या हर समय किसी न किसी की गोद में है। लाड़ हमेशा से सबका था। अब कुछ ज्यादा है। इभ्या का जन्म यहीं उदयपुर में हुआ था। 26 नवंबर को तीसरा जन्म दिन पहली बार मम्मी-पापा के बगैर आएगा!
 सौम्य चार साल का है। 40 किलोमीटर दूर चित्तौड़गढ़ के एक बड़े स्कूल में कपासन के पांच दूसरे बच्चों के साथ पढ़ने जाता है। वह पहली क्लास में है। इभ्या के ताऊ अमित राठौर का परिवार नीमच से गुड़गांव शिफ्ट हो चुका है। बहुत संभव है उसका पालनपोषण नाना के घर में ही हो। जब इभ्या स्कूल जाएगी और उसकी क्लास के बच्चे अपने मम्मी-पापा के बारे में कुछ बताएंगे तो वह घर लौटकर नाना-नानी से अपने मम्मी-पापा के बारे में क्या सवाल करेगी? अशोक चंडालिया कहते हैं-हम उसे समझाएंगे। वैसे हमारे यहां बच्चे इस समझ से ही बड़े होते हैं इसलिए लगता नहीं कि वह बड़े होकर कोई सवाल करेगी।
  दीक्षा के बाद सुमित और अनामिका अपने नए नाम और रूप के साथ कभी नीमच या कपासन आएंगे? कभी आए और इभ्या उनके सामने आई तो क्या होगा? क्या उनके मन में बिटिया की कोई स्मृति शेष होगी?  दीक्षा का मार्ग सचमुच उन्हें अपनी विगत मासूम स्मृतियों से अलग कर देगा? दीक्षा के बाद सारे सांसारिक संबंध शून्य हो जाते हैं। इभ्या के लिए ये सवाल बेबूझ हैं। शायद बड़े होकर जब वह आचार्यों को सुनेगी और शास्त्रों को पढ़ेगी तो खुद समझेगी।
 अभी बेचैन सी दिखाई दे रही नन्हीं इभ्या के मन में मां के आंचल की स्मृति ज्यादा साफ हैं। अलग हुए अभी महीना भर भी नहीं हुआ। दादा-दादी के घर में काेई कमी नहीं थी। उसके आसपास हर साधन-सुविधाएं थीं। बड़ा घर। नई कारें। अच्छे से अच्छे कपड़े। मगर त्यागी तीर्थंकरों के रास्तों पर यह सब संसार का बेमतलब विस्तार है। इस चमक-दमक से छुटकारा ही चेतना की ऊंची अवस्थाओं में ले जा सकता है, जो मनुष्य देह धारण करने का सबसे महान मकसद है।
 किसी भी समुदाय की मानसिक संरचना एक खास ढांचे में ढली होती है। ज्यादातर ये ढांचे बहुत सख्त होते हैं। खासकर नए धर्मों में, जिनकी जड़े समय की गहराइयों में बहुत नहीं हैं। जैसे इस्लाम जेहाद के प्रति अपने मानने वालों में एक खास किस्म का जुनून भरता है। अपने मकसद के लिए वे किसी भी हद तक जा सकते हैं। हूरों से रौनकदार जन्नत के ख्वाब के आगे वे बेहिसाब खून बहाते हुए खुद के भी चिथड़े उड़ा डालते हैं। जिंदगी की सारी दौलत और चमकदमक को एक दिन अचानक छोड़कर बिल्कुल भिक्षुओं जैसा जीवन जीने के लिए आगे बढ़ जाना क्या दूसरी अति नहीं है? ओशो ने इसे गांधी-विनोबा के सत्याग्रहों को भी एक प्रकार की हिंसा ही कहा। दूसरों को मारे तो हिंसा और खुद को मारे तो भी हिंसा। वह अहिंसा कैसे हो सकती है? अब यह बहस हमें एक अलग दिशा में ले जा सकती है। बइसलिए इस्लाम की सख्ती और तीर्थंकरों की करुणा बहस का दिलचस्प विषय तो है। मगर उस सुबह प्यारी इभ्या के चेहरे को अपने जेहन में महफूज कर मैं कपासन से रवाना हुआ।


 हाईवे पर आकर पता चला कि नाथद्वारा और कुंभलगढ़ ज्यादा दूर नहीं हैं। मेरे पास कुछ घंटे थे। सबसे पहले दोपहर बारह के पहले ही पहुंचकर नाथद्वारा में श्रीनाथजी के दर्शन किए। मुझे लगा जैसे ठाकुरजी इंतजार ही कर रहे थे कि पंडित पांच साल तक देश भर में खूब घूमा। यहां क्यों नहीं आया? बहुत अच्छे से मैंने उन्हें अपनी आंखों में उतारा। उनका मूल स्थान ब्रज में है। गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा जहां से शुरू होती है, वहां जतीपुरा गांव में श्रीनाथजी का मूल स्थान है। दिल्ली के सात सौ साल के मुस्लिम शासनकाल में जब मुल्क में मंदिरों को कई-कई बार तोड़ गिराने और लूटने का मौसम बहार पर था, तब श्रीनाथजी को ब्रज से बचाकर यहां लाया गया था। इसलिए आज भी मान्यता है कि वे दिन में नाथद्वारा में होते हैं, शयन के लिए रात में जतीपुरा लौटते हैं। वहां मैं पहले जा चुका हूं। उनके शयन के राजसी इंतजाम होते हैं रोज। शाम ढलते ही अष्ट सखा कवियों की रचनाओं का शास्त्रीय गायन, छप्पन भोग, रोशनी, सुगंध और राधे-राधे की गूंज। ऊर्जा से भरी एक सुगंधित शाम मैं जती पुरा में वल्लभ संप्रदाय के इस पुराने मंदिर में बिता चुका था। आज उनके सामने नाथद्वारा में मौजूद था।

 मंदिर से निकला तो पहाड़ी रास्तों का रुख किया। रास्ता भटककर हम राजसमंद तक आ गए और वहां से कुछ लंबा रास्ता पकड़ा। यहां से करीब पचास किलोमीटर के पहाड़ी फासले पर कुंभलगढ़ का किला महाराणा प्रताप की जन्म स्थली है। अरावली की जटिल पहाड़ी श्रृंखला में एक बेहदी सुरक्षित चोटी पर इस किले को बनाया गया था। यह राजस्थान के दिलों पर राज करने वाले वीर और विद्वान राणाओं की चहलकदमी से सदियों तक आबाद रहा है। इन राणाओं ने अपनी इज्जत से समझौते नहीं किए। इनके महान वंशजों ने इसकी बड़ी कीमत भी चुकाई।
 सबसे ऊपर राणा कुंभा, जिनके राज में ऐसे 84 किले थे। 32 तो राणा ने ही बनवाए थे। उनकी आगे की पीढ़ी में राणा सांगा, जो बाबर से टकराए। उनकी बेटी रत्नावली भोपाल के पास रायसेन के एक युवराज को ब्याही थी। उनकी मौत के बाद चित्तौड़गढ़ के किले में हुए तीन इतिहास प्रसिद्ध जौहरों में से दूसरा बड़ा जौहर हुआ था। उनकी महारानी ने सैकड़ों दूसरी औरतों और लड़कियों के साथ एक साथ चिता में जलकर प्राण त्याग दिए थे। जीत के जोश से भरकर किलों में दाखिल होने वाले ताकतवर मुस्लिम सुलतानों और उनके बेरहम फौजियों के हाथ पड़कर जिंदगी भर की बेइज्जती और जलालत झेलने से अच्छा था कि खुद को जलती आग के हवाले किया जाए। चित्तौड़गढ़ लेकर चंदेरी तक का अतीत जौहरों में सैकड़ों बदनसीब औरतों की ऐसी बेहिसाब चीत्कारों से भरा हुआ है।

 कुंभलगढ़ की एक और शान मेवाड़ की आन-बान-शान के प्रबल प्रतीक महाराणा प्रताप, जिन्होंने अकबर के आगे घुटने टेकने से इंकार ही नहीं किया, मूंछों पर ताव देकर सीधे मुकाबले के लिए न्यौता दिया। अकबर के सेनापति जयपुर राजघराने के राजा मानसिंह और महाराणा प्रताप के नुकीले संवाद बड़े मशहूर हैं और सदियों बाद भी मेवाड़वालों का रक्त संचार अब तक बढ़ाते हैं।
 तीन दिन की इस यात्रा से भोपाल लाैटते हुए मेरा दिमाग तेजी से घूम रहा है। मैं सोच रहा हूं ब्रज से निकलने के बाद श्रीनाथजी किस मुश्किल से आकर यहां बसे होंगे। कुंभल और चित्ताैड़ ने क्या-क्या देखा-भोगा होगा?
और सबसे अहम इभ्या का आने वाला कल कैसा होगा?







Thursday 10 August 2017

सरदार सरोवर का सार संक्षेप




 मेधा पाटकर को आखिर क्या चाहिए? तीन दशकों से यह औरत सड़कों पर है। हरसूद में 1989 की रैली के समय पहली बार मेधा का नाम देश के स्तर पर सुना गया था। वे इंदिरा सागर बांध की डूब में आ रहे गांवों के मसले को लेकर हरसूद आई थीं। एक बड़ी रैली में देश भर के हजारों सामाजिक कार्यकर्ताओं समेत कई जानी-मानी हस्तियां यहां जुटी थीं। इनमें मेनका गांधी, बाबा आमटे, सुंदरलाल बहुगुणा और वीसी शुक्ला वगैरह भी थे। हरसूद को हर हाल में बचाने के संकल्प की याद में एक विजय स्तंभ वहां स्थापित किया गया था। वरिष्ठ पत्रकार एनके सिंह तब इंडिया टुडे में थे। दो पेज की उनकी स्टोरी का हेडलाइन था-हार न मानने वालों का हौसला!
  बाद में मेधा बेसहारा विस्थापितों की आवाज बन गईं। विकास की परियोजनाओं की चपेट में आकर बेदखल हो रहे लोगों ने उन्हें हर कहीं अपने बीच पाया। शहरों की गंदी बस्तियों में रहकर अपनी आजीविका कमा रही आबादी हो या गांव-पहाड़ों में खदानों और हाईवे के निर्माण से उखड़ने वाले गुमनाम लोग। मेधा ऐसी हर जगह पर पहुंची, जहां मानवीय विस्थापन सरकार के अमानवीय तौर-तरीकों का शिकार बना। तीस साल से नर्मदा बचाओ आंदोलन उनकी पहचान ही बन गया। नर्मदा घाटी में बन रहे बांधों की श्रृंखला ने थोक के भाव में गांव और आबादी बेदखल की। हरसूद जैसी बड़ी बस्ती समेत करीब ढाई सौ गांव इंदिरा सागर में समा गए। निसरपुर जैसे कस्बे के साथ करीब 190 गांव सरदार सरोवर की डूब में हैं। एक बांध मध्यप्रदेश में है। दूसरा गुजरात में। मगर पूरी डूब मध्यप्रदेश की है। ये हजारों करोड़ रुपए की लागत के पावर प्रोजेक्ट हैं, जिनसे पैदा होने वाली बिजली और जलाशयों का पानी बेतहाशा बढ़ती आबादी के लिए बेहद जरूरी है। इनमें सरकारों की पूरी ताकतें लगी हैं। पार्टियां कोई भी हों। 
 मैं 2004 से इस मसले से लगातार जुड़ा हूं। हमने हरसूद को बहुत करीब से देखा। अब बड़वानी भी देख लिया। इस बीच मध्यप्रदेश में व्यवस्था परिवर्तन का नारा बुलंद करके सत्ता में आई बीजेपी की सरकारें ही रहीं। केंद्र में ज्यादा समय यूपीए का झुंड था, जिसे 2014 में नरेंद्र मोदी ने उलट दिया। एक राज्य के दो सौ-ढाई सौ गांवों का दो बार में दस साल के भीतर डूबना किसे कहते हैं? शायद ही किसी राज्य के हिस्से में ऐसी मुसीबत आई हो। बांध सरकार की जरूरत हैं, उससे ज्यादा जिद हैं। मगर इससे जुड़ा मानवीय विस्थापन का सवाल उनके लिए उतना ही मायने नहीं रखता। जबकि सबसे अधिक मानवीय संवेदना की दरकार रखने की जहां जरूरत थी, वहां सरकार की भ्रष्ट मशीनरी ने दोनों मौकों पर क्या किया?
 यह काम बहुत बेहतर ढंग से बहुत आसानी से हो सकता था। 2004 में इंदिरा सागर बांध के कारण जो हालात सामने आए थे, बेशक उसके लिए बहुत हद तक दिग्विजयसिंह जिम्मेदार थे, जिन्होंने दस साल सत्ता में रहकर भी वहां कुछ खास नहीं किया और जब बांध अपनी पूरी ऊंचाई पर बनकर खड़ा हुआ तब होश फाख्ता हुए नई मुख्यमंत्री उमा भारती के। मगर वे ज्यादा समय सत्ता में नहीं रहीं। थोड़े समय बाबूलाल गौर मुख्यमंत्री रहे और फिर एकछत्र राज करने के लिए तकदीर ने शिवराजसिंह चौहान का दरवाजा खटखटाया। उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी पर 12 साल पूरे हुए। यह एक युग की अवधि है। 
 आज जो कुछ भी सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र में मचा है, उसके लिए बिल क्लिंटन, सद्दाम हुसैन या मुअम्मर गद्दाफी जिम्मेदार नहीं हो सकते। जब सरदार सरोवर के विस्थापितों को मुआवजे बट रहे थे, तब इंिदरा सागर के विस्थापन-पुनर्वास की नाकामी का स्वाद बखूबी चखा जा चुका था। पूरी सरकारी मशीनरी की क्षमता और कारनामे उजागर हो चुके थे। एक सबक सीखने के लिए 13 साल कम नहीं होते, बशर्ते मन में वाकई व्यवस्था परिवर्तन की गहरी चाह हो। चुनाव जीतना और बात है, मगर ऐसी कोई चाहत मध्यप्रदेश सरकार में कभी किसी मुद्दे पर दिखाई नहीं दी। वर्ना शिवराजसिंह चौहान चाहते तो सरदार सरोवर के विस्थापन और पुनर्वास को इसी 36 सौ करोड़ रुपए में दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मॉडल बना सकते थे। उन्हें पूरा काम अपने हाथ में रखना ही था। लगातार उन 88 स्थानों की मॉनीटरिंग करनी थी, जहां उनके अफसरों ने पुनर्वास के नाम पर 15 सौ करोड़ रुपए फूंके। जिस 900 करोड़ के स्पेशल पैकेज का तोहफा देने के बावजूद इस समय विस्थापितों की गालियां मिल रही हैं, यह रकम भी वहीं के विकास पर लगा देनी थी।
 सत्ता में आकर अपनों को कमाने के हजार मौके हैं। सिर्फ एक काम ईमानदारी से देश-दुनिया, राजनीतिक नेतृत्व और सरकारों के लिए नजीर बन जाए, इस सोच के साथ शिवराज अपने किसी भरोसेमंद बिल्डकॉन को ही यह जिम्मा दे देते कि निसरपुर समेत बाकी 88 स्थानों पर शानदार सुविधाओं से लैस टाउनशिप पूरी प्लानिंग से बनाई जाएं। बेहतर सड़कों के नेटवर्क से जुड़ी रिहाइशें, उनके कारोबारी कॉम्पलैक्स, बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल और संचार के साधन प्रदेश में सबसे उम्दा देते। नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण (एनवीडीए) का मुख्यालय आखिरी विस्थापित परिवार के अपने गांव में रहने तक धार और बड़वानी से ही काम करता, भोपाल में नहीं। ग्राउंड पर हर महीने एक रिव्यू सीएम की काफी होती। एक निजी एजेंसी अलग से हरेक हरकत की मॉनीटरिंग करती। एक टाइमलाइन तय होती। फर्जी रजिस्ट्री जैसे कारनामे करने वालों को हमेशा के लिए नौकरी से निकालती तो एक पैसा भी दलाली या रिश्वत में खाने के पहले बाकी लोग हजार बार सोचते।
 प्रदेश के मुखिया की ऐसी सक्रिय और विजनरी पहल उनका कद कई गुना बढ़ा देती। इस पूरे काम में नर्मदा बचाओ आंदोलन से मेधा पाटकर और उनकी टीम को भी जोड़ती। सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस खेहर ने मेधा से कहा कि आप बताइए आप विस्थापितों के लिए क्या चाहती हैं, हम उससे ज्यादा के आदेश देने को तैयार हैं। यही अमृत वचन शिवराजसिंह चौहान दस साल पहले बोल देते तो बांध पर 17 मीटर के गेट लगने के पहले यह झमेला खड़ा नहीं होता। गांव के लोग खुशी-खुशी अपने नए घरों में शिफ्ट हो गए होते। पहले से शानदार व्यवस्थित और सुविधा संपन्न घरों को कौन ठुकराता, जहां अगले ही दिन से उनके पास करने को काम-धंधे होते, बच्चों को पहले से अच्छे स्कूल, अस्पताल मिलते?  
 तब शिवराज सरकार प्रधानमंंत्री नरेंद्र मोदी को बुलाकर विकास का पर्व बड़वानी में मनाती। मैं दावे से कह रहा हूं कि यह संभव हो सकता था। अगर आंदोलन ही नर्मदा बचाओ का पैदाइशी मकसद है तो सरदार सरोवर के गांव ही मेधा और उनकी टीम को बाहर का रास्ता बता देते। कौन पहले से अच्छे घरों और पहले से अच्छे कारोबारी हालात में जाकर रहना नहीं चाहेगा। सिर्फ विजन चाहिए था। सख्ती चाहिए थी। अफसरशाही उसकी जगह पर होनी थी। ऐसा होता तो सरकार को बेशकीमती 13 साल गंवाने और 36 सौ करोड़ रुपए खर्च के बाद ऐसी लानतें न मिलतीं। यह हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक नेतृत्व की आपराधिक भूल है, जिसका खामियाजा सरदार सराेवर के 193 गांवों के करीब 40 हजार परिवार इस वक्त भुगत रहे हैं!
 12 दिन के धरने के दौरान भी सरकार ने अपने कारिंदों पर ही भरोसा किया। मुख्यमंत्री एसपी-कलेक्टर को मेधा को मनाने के लिए भेजते रहे। फिर कोई भय्यूजी महाराज प्रकट हुए। मेरा मेधा को कोई समर्थन नहीं है। न किसी किस्म के विरोध में कोई रुचि है। मेधा और उनकी टीम पर यह तोहमतें लगती रही हैं कि वे विदेशों से आए पैसे के बूते पर हमारे विकास के प्रोजेक्ट के खिलाफ माहौल बनाती हैं। अगर ऐसा है तो भी क्या दिक्कत थी। अभी कश्मीर में विदेशी फंड की दम पर आतंक फैलाने वाले कई दगाबाज गिलानी-फिलानी अंदर हुए हैं। सरकार के पास अगर ऐसे कोई सबूत थे तो मेधा पाटकर की जगह चिखल्दा गांव के धरने पर नहीं, तिहाड़ में होनी चाहिए थी। सिरदर्द पैदा करने के लिए उन्हें क्यों खुला छोड़ा हुआ है?
  नर्मदा बचाओ आंदाेलन आज का नहीं है। तीस साल से ज्यादा हो गए घाटी में इस आवाज को गंूजते। बड़े बांधों के औचित्य की बहस बहुत बड़ी है लेकिन एनबीए की आवाज विस्थापन के तौर-तरीकों को लेकर ही गूंजती रही। उन्होंने काश्मीरी नौजवानों की तरह भारत के माथे पर पत्थर नहीं बरसाए, वे नक्सलियों की तरह भी पेश नहीं आए। वे अदालतों में गए। आरटीआई के जरिए असलियतें उजागर कीं। खंडवा, बड़वानी, भोपाल और दिल्ली में धरने-रैली करते रहे। नारे लगाते रहे। ज्ञापन सौंपते रहे। याचिकाएं बढ़ाते रहे। शिकायतें करते रहे।
 सिंहस्थ के समय तूफान आया तो मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान बांधवगढ़ नेशनल पार्क में अपने परिवार को छोड़कर रात में उज्जैन पहुंचे और परेशानहाल श्रद्धालुओं को अपने हाथों से चाय पिलाई। उनकी रहमदिली और सहजता के कायल कई हैं। भोपाल में ज्यादा बारिश ने जीना हराम किया तो सुबह सीएम पार्षदों से आगे निचली बस्तियों में दौड़ते दिखे। दस साल में जब भी फसलें चौपट हुईं शिवराज का हेलीकॉप्टर अनगिनत खेतों में उतरा। ऐसे हर स्पॉट से अखबारों में एक हेडलाइन रोचक जुमला ही बन गया, शिवराज ने कहा-मैं हूं न! गांवों के चौकीदारों से लेकर शहरों में काम करने वाली बाइयों तक शायद ही कोई तबका बचा होगा, जिसकी गुहार अपने सरकारी बंगले में पंचायत बुलाकर न सुनी हो। प्रमोशन में आरक्षण के लिए इतने प्रतिबद्ध दिखे कि सुप्रीम कोर्ट में महंगे वकील खड़े कर दिए।
 सरदार सरोवर बांध के 40 हजार विस्थापित परिवार किस हाल में हैं, वहां अफसर क्या कर रहे हैं, पुनर्वास स्थल रहने लायक हैं या नहीं, लोग वहां क्यों नहीं जा रहे, उनके कारोबार डूब तो नहीं रहे, वे कमाएंगे क्या, उनके मन में क्या है, सरकार सब कुछ अच्छा ही कर रही है तो वे नाराज क्यों हैं, हाईकोर्ट-सुप्रीम कोर्ट के चक्कर क्यों लगा रहे हैं, यह पूछने न वे गए और न ही उनका कोई काबिल मंत्री। वहां मेधा पाटकर गईं। 12 दिन धरने के बाद एक शाम बंदूकों-लाठियों से लैस तीन हजार पुलिस वालों ने उन्हें जबरन उठा लिया। दो दिन इंदौर के बांबे हास्पिटल में रखकर उन्हें धार जेल भेज दिया गया। डेढ़ महीने पहले किसान आंदोलन ने सरकार के 13 सालों के किए कराए पर पानी फेर दिया था। अब विस्थापितों की सुर्खियां रही-सही कसर पूरा कर रही हैं। मामला हाथ से निकल चुका है।
 2004 में हरसूद के हाल पर लिखी मेरी किताब 2005 में छपकर आई थी। इसके दस साल बाद एक फेलोशिप के तहत मुझे इंदिरा सागर बांध के इलाके में फिर जाने का मौका मिला। करीब एक साल तक मैंने हरसूद समेत खंडवा, हरदा और देवास जिले के कई पुनर्वास स्थल देखे और उन परिवारों में वापस गया, जो 2004 में बेदखल हुए थे। बहुत संतुलित भाषा का प्रयोग करते हुए मैं कहना चाहूंगा कि सरकार में आने के पहले हमारे ज्यादातर नेताओं को पता ही नहीं है कि उन्हें जनता के लिए करना क्या है? पार्टियों में उनकी ऐसी कोई ट्रेनिंग नहीं है कि ऐसे विकट हालातों में वे किस विजन और नीयत से पेश आएं। वे पार्टी में छोटे-मोटे पदों से होकर पंच-पार्षद बनते हुए विधायक और सांसदों के टिकट तक पहुंचते हैं। फिर तमाम तीन-तिकड़में और तकदीर उन्हें एक शपथ तक ले आती है।
 हमने देखा है कि नेताओं की इस राजनीतिक यात्रा में सफेद झूठ के साथ खरा पैसा पानी की तरह बहता है, जिसे जुटाने के लिए एक के बाद दूसरे और बड़े पद जरूरी होते हैं। जितना बड़ा पद, उतना बड़ा झपट्‌टा। सरकार में आने या पद के पाने का एकसूत्रीय कार्यक्रम बेहिसाब दौलत कमाना भर है। इसलिए सरकार में आते ही ये नेता पहले से सत्ता का मजा ले रहे उन घाघ अफसरों के चंगुल में जा फंसते हैं, जो एक बड़ी परीक्षा पास करके 30-35 सालों के लिए सिस्टम की छाती पर सवार होते हैं। ऐसी अफसरशाही के सहारे मूर्ख और लालची नेताओं को सत्ता का अवसर जन्नत जैसे अहसास में ले जाता है, जहां पीड़ित जनता की कराह भी वे अफसरों के मुंह से मधुर गीत के रूप में सुनते हैं। बड़ा पद उनके लिए दूल्हे के रूप में घोड़ी की सवारी जैसा है, जिस पर वे अगले पांच साल तक सवार रहेंगे। भाषण देंगे। घोषणाएं करेंगे। शिलान्यास, उदघाटनों की शोभा बढ़ाएंगे। किसी ठोस नतीजे या बदलाव की उम्मीद बेकार है, क्योंकि ज्यादातर के पास वैसा विजन ही नहीं है। नीयत भी नहीं है।
 मेरे मध्यप्रदेश में यही व्यापमं की सीख है, यही शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन के खस्ताहाल इन्फ्रास्ट्रक्चर की इबारत है, यही बेमौत मर रहे किसानों से मिला सबक है और यही अब सरदार सरोवर का सार संक्षेप है!


















कालसर्प योग

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