Tuesday 24 October 2017

श्रीलंका में सीता मंदिर की कहानी



 पांच साल तक लगातार भारत घूमने के बाद 2015 की शुरुआत में स्थिर हुआ। ढाई साल बाद अचानक दीपावली कवरेज के लिए  श्रीलंका जाने का योग बना। कारण था दीपावली पर वहां से सीता मंदिर की एक जगमगाती तस्वीर और कहानी। इस सफर में पहले फोटो एडिटर ओपी सोनी साथ जाने वाले थे लेकिन पासपोर्ट नहीं होने से वे पिछड़ गए और उदयपुर के ताराचंद गवारिया भारी बहुमत से नेता चुने गए। वे पासपोर्ट सहित दिल्ली में ही मौजूद थे। दिल्ली से सवा तीन घंटे की उड़ान से शाम सात बजे के पहले हम कोलंबो के भंडारनायके एयरपोर्ट पर उतरे। यहां से 175 किलोमीटर दूर है शानदार पहाड़ी पर्यटन केंद्र नुवारा एलिया, जहां हमेें जाना था।
 एयरपोर्ट पर करेंसी एक्सचेंज और टैक्सी करने में एक घंटा लगा होगा। आठ बजे के पहले हम निकले। रोहन नाम का स्थानीय ड्राइवर हमारा सारथी था। करीब सौ किलोमीटर का सफर सीधी सड़क का था। आगे के सत्तर किलोमीटर पहाड़ी रास्ते पर थे। जब नुवारा एलिया पहुंचे तो वहां ठंड और बारिश थी। हम तटवर्ती इलाकों की उमस के मौसम के हिसाब से सादे कपड़े ले गए थे। वहां थियागो से लगातार फोन पर बात होती रही थी। वे श्रीलंका के शिक्षा राज्यमंत्री एस. राधाकृष्णन के प्रेस सेक्रेटरी हैं। उन्होंने होटल की बजाए हमारे रुकने का इंतजाम अंग्रेजों की बनवाई एक कोठी में किया हुआ था। यह 1876 में बने हिल्स क्लब के पास थी, जहां एशिया के कुछ खास गोल्फ कोर्ट में से एक अब तक मौजूद था। अंग्रेज 6200 फुट ऊंचाई की सर्द वादियों में यहां चाय के बागान लगाने आए थे।
  1818 में वे तमिलानाडु से भी कुछ लोगों को लाए थे। थियागू बताते हैं कि तमिलनाडू से वे श्रीलंका के मन्नार किनारे से मातले होकर यहां तक लाए गए थे। मैंने एक दीपावली रामेश्वरम् से कवर की थी। तब धनुषकोडि जाने का मौका मिला था। यह रेतीला टापू रामेश्वरम से श्रीलंका की तरफ फैला हुआ है। तब मुरुगेशन नाम के स्थानीय ड्राइवर ने मुझे बताया था कि श्रीलंका के तट की यहां से दूरी सिर्फ 20 किलोमीटर है। यह वही जगह है जहां से राम ने युद्ध के लिए लंका प्रस्थान किया था। इसके लिए सेतु निर्माण धनुषकोडि के इसी कोने से किया गया था। मुरुगेशन पहले किसी शिपिंग कंपनी में काम करता था। उसने बताया था कि समुद्र के भीतर वे संरचनाएं अब तक सुरक्षित हैं, जो किसी प्राचीन सेतु के अस्तित्व का संकेत देती हैं। मुझे लगता है कि उस समय श्रीलंका और भारत के बीच की दूरी भी कम ही रही होगी। समुद्री जलस्तर बढ़ने से यह दूरी अब बीस किलोमीटर है। अंग्रेजों द्वारा काम के लिए लाग गए तमिलों के वंशज आज यहां बहुत बड़ी तादाद में और राजनीति में असरदार हैं। नुवारा एलिया की 15 लाख आबादी में से 10 लाख तमिल हैं। संसद की आठ सीटों में से पांच पर तमिल सांसद हैं। राधाकृष्णन इन्हीं में से एक हैं जो वर्तमान सरकार में शिक्षा राज्यमंत्री हैं। वे उस मंदिर ट्रस्ट के चेयरमैन भी हैं, जो सीता अम्मन टेंपल की देखरेख करता है। वे अगले दिन हमें ट्रस्ट के ऑफिस में मिले और मंदिर में रात की फोटोग्राफी की मंजूरी के साथ तैयारियों में भी हमारी मदद की। सीता मंदिर नुवारा एलिया शहर से करीब पांच किलोमीटर के फासले पर है। 
 थियागू के साथ हम सुबह करीब 11 बजे सीता मंदिर पहुंचे। श्रीलंका के इस दूरदराज कोने में हिंदी कोई नहीं जानता मगर हनुमान चालीसा की गूंज अयोध्या और चित्रकूट की अनुभूति करा रही थी। भारत में गुरुवार को दिवाली थी, यहां बुधवार को ही। दक्षिण भारतीय शैली के सीता अम्मन टेंपल में विशेष पूजन की तैयारियां थीं। बारिश और ठंड थी। हिंदी और तमिल में राम, सीता और हनुमान की स्तुतियां कड़कड़ाती ठंडी हवाओं में अमृत घोल रही थी।  हम यह सुनकर ही यहां आए कि राम के वनवास के दिनों में रावण ने सीता का हरण कर यहीं कहीं उन्हें रखा था। सामने गगनचुंबी पहाड़ियों पर कहीं अशोक वाटिका थी। यह एकमात्र मंदिर आज  लंका में सीता की उपस्थिति का प्रतीक है। ठंडे मौसम ने यहां आने का आनंद दो गुना कर दिया। ऐसी जगह कहां बार-बार आना होता। इसलिए हर पल को कैमरे में उतारना जरूरी है। हमने बारिश के रुकते और सूरज के बादलों से झांकते ही दिन की चमकती रोशनी में मंदिर की छवियां लीं। 
पुरोहित रामानंद गुरुक्कल ने राम, लक्ष्मण,सीता और हनुमान की प्राचीन प्रतिमाएं पांच हजार साल पुरानी बताईं। हम उनकी विशेष आरती के साक्षी बने। गुजरात और दिल्ली के कई श्रद्धालु भी आज यहां मिले। हम नुवारा एलिया से रात को फिर मंदिर लौटे। इस समय बारिश रुक-रुककर हो रही थी। बाहर हवा काफी तेज थी। दिन के समय घनी हरियाली की पृष्ठभूमि में देखे मंदिर का रूप इस समय एकदम अलग नजर आया। शाम ढलते ही इसकी अलग छटा नजर आई। हरियाली अंधेरे में छिप गई है और उस पहाड़ी सोते की आवाज लगातार गूंज रही है, जिसके बारे में कहते हैं कि सीता अशोक वाटिका से उतरकर यहीं स्नान के लिए आती थीं। पानी रुका तो हमने रात की रोशनी में सोने से दमकते मंदिर की यादगार तस्वीरें हर कोने से लीं। स्थानीय श्रद्धालु शाम सात के बाद यदाकदा ही आते हैं इसलिए इस वक्त पूरी तरह शांति थी। बेहतर फोटो के लिए रात की जगमग में हमने दीयों की खास रोशनी की। 
  युग बीत गए। उधर भारत की चेतना में राम बसे हैं तो इधर श्रीलंका की स्मृतियों में सीता भी सुरक्षित हैं। नुवारा एलिया के घुमावदार ऊंचे पहाड़ों की सघन हरियाली में ही कहीं अशोक वाटिका थी। दो दिशाओं में आधे आसमान तक ऊंचे ऐसे ही एक पहाड़ी कोने में सीता का मंिदर है। इस इलाके में कई मंदिर हैं मगर वानर सिर्फ सीता मंदिर में ही नजर आए। मंदिर के प्रवेश द्वार से लेकर अंदर तक हनुमान यहां वीर योद्धा के रक्षक रूप में अनेक प्रतिमाओं में हैं। मंदिर के पीछे एक चट्‌टान पर हनुमान के चरण चिन्ह भी हैं। एक खास किस्म का अशोक वृक्ष सीता निवास के इसी दायरे में मिलता है, जिसमें अप्रैल के महीने में लाल रंग के फूल आते हैं। गॉल नाम के क्षेत्र में ऐसी जड़ी-बूटियों की भरमार है, जो पूरे श्रीलंका में कहीं नहीं होतीं। कथा है कि हनुमान संजीवनी बूटी के लिए जिस पहाड़ को उठा लाए थे, उसमें आईं वनस्पतियों का ही यह विस्तार हैं। सिंहली आयुर्वेद में यह औषधियां आज भी वरदान मानी जाती हैं। देवुरुम वेला नाम की जगह के बारे में प्रचलित है कि यहीं सीता की अग्नि परीक्षा हुई थी। यहां की मिट्‌टी आश्चर्यजनक रूप से काली राख की परत जैसी है, जबकि देश भर में भूरी और हल्के लाल रंग की मिट्‌टी पाई जाती है। श्रीलंका के शिक्षा राज्यमंत्री वी. राधाकृष्णन मंदिर ट्रस्ट के चेयरमैन भी हैं। भास्कर से चर्चा में उन्होंने बताया-रावण की लंका का दहन यहीं हुआ। मिट्टी में मोटी काली परत स्थानीय लोकमान्यता में इसी दहन कथा से जुड़ती है। सीता की स्मृतियों से जुड़ा यह स्थान अब एक पवित्र तीर्थ बन चुका है। आस्था की दृष्टि से हमारे लिए यह स्थान उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना भारत में अयोध्या।
सीता अशोक वाटिका में कितने समय रहीं: वनवास के 14 सालों में राम, लक्ष्मण और सीता ने कहां-कितना समय गुजारा और सीता कितने दिन लंका में रहीं? रामेश्वर में रह चुके और इन दिनों पंचवटी में मौजूद पंडित विष्णु शास्त्री कहते हैं कि भगवान ने वनवास के 12 वर्ष चित्रकूट में बिताए थे। लगभग एक वर्ष पंचवटी में रहे। यहीं से रावण ने सीता का हरण किया। यहीं से राम ने किष्किंधा की ओर प्रस्थान किया, जहां हनुमान और सुग्रीव से उनकी मित्रता हुई। बालि वध हुआ। रामेश्वर में जटायु के भाई संपाति ने ही सीता की तलाश में निकले वानरों को सीता का पता बताया था। फिर राम का रामेश्वरम आगमन, सेतु निर्माण और युद्ध के लिए लंका प्रस्थान के प्रसंग हैं। ऐसा अनुमान है कि लंका में सीता 11 माह रहीं। सीता मंदिर के एक ट्रस्टी एस. थियागु भी स्थानीय मान्यता के आधार पर इसकी पुष्टि करते हैं।
शुरू में मंदिर विरोध यहां भी: नुवारा एलिया श्रीलंका के सेंट्रल प्रोविंस में है। शिक्षाराज्य मंत्री वी. राधाकृष्णन अपकंट्री पीपुल्स फ्रंट के लोकप्रिय नेता हैं। बीस साल पहले भव्य सीता मंदिर के निर्माण को लेकर एक विरोध यहां भी हुआ। दरअसल स्थानीय बौद्ध सिंहली नहीं चाहते थे कि सीता के मंदिर को बड़ी पहचान मिले। तब राधाकृष्णन ही थे, जिन्होंने तमिलों को एकजुट कर मंदिर को भव्य रूप दिलाया। तत्कालीन पर्यटन मंत्री धर्मश्री सेनानायक मंदिर के लिए अलग से जमीन देने को राजी हुए। यहां मोरारी बापू की कथा हुई। कुंभाभिषेकम् में श्रीश्री रविशंकर आए। इसी महीने लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन आकर गईं। अब हर दिन कई भारतीय यहां आते हैं। यह बात और है कि भारत में अयोध्या का राम मंदिर अब भी निर्माण के इंतजार में है और राम एक बदशक्ल टेंट में पनाह लिए हुए हैं।
हर महीने श्रीलंका में पोएडे यानी पूजा का एक दिन तय है। इस दिन देशभर के मदिरालय बंद रहते हैं और लोग शाकाहार पर जोर देते हैं। सीता अम्मन टेंपल में तब सबसे ज्यादा चहलपहल होती है। सैकड़ों पर्यटक भी स्थानीय श्रद्धालुओं के साथ मिथिला के राजा जनक की बेटी और अयोध्या के राजा राम की अर्धांगिनी सीता की कहानी रावण की लंका के इस कोने में आकर सुनते हैं और बुराई पर अच्छाई की जीत की प्रतीक राम-रावण के युद्ध की कथा स्मृतियों में ताजा हो जाती है। जनवरी में पोंगल के एक महीने पहले से तमिल समाज के गांव-गांव में भजन गाए जाते हैं। 15 जनवरी को पूर्णाहुति पर शोभायात्रा निकलती है। राम के दूत के रूप में हनुमानजी ने यहीं अशोक वाटिका में मुद्रिका भेंट की थी। यह दिन रिंग फेस्टीवल के रूप में प्रसिद्ध है।
 अगले दिन हम दोपहर में निकले। रास्ते में कैंडी नाम का एक शहर है, जहां के एक पुराने बौद्ध मंदिर में जाने का अवसर मिला। इस मंदिर के पत्थर बता रहे थे कि ये करीब हजार साल पुराने तो होंगे ही। दो लोगों को भीतर जाने की एवज में श्रीलंका की मुद्रा में 1500 रुपए लगे। बुद्ध का धर्म भारत की तुलना में यहां के सिंहली मूल निवासियों ने बहुत अच्छी तरह से सहेजा हुआ है। सबसे पहले मौर्य सम्राट अशोक के बेटे-बेटी महेंद्र और संघमित्रा बाेधि वृक्ष का अंश लेकर आए थे। मंदिर के भीतर पीतल की प्लेटों में सदियों पुराने वे वृत्तांत दर्ज थे, जब भारत से बुद्ध के दांतों के अवशेष लेकर भिक्षु गए होंगे। चौराहों और तिराहों पर बुद्ध की शानदार मूर्तियां दिखाई दीं, जिनका रखरखाव भारत के तिराहों-चौराहों पर सजी नेताओं की मूर्तियों से कहीं ज्यादा बेहतर था। कैंडी के रास्ते के शहरों में नई मस्जिदें भी आकार ले रही थीं। नुवारा एलिया में भी मेनरोड पर एक मस्जिद थी। जबकि तीस हजार आबादी के इस छोेटे से शहर में बहुत कम मुस्लिम आबादी है।


 

Friday 13 October 2017

पदमावती देखने के पहले इसे जरूर पढ़िए



‘उसे किसी ज्ञान-विज्ञान से संबंध न था। वह कभी किसी आलिम के साथ उठा-बैठा भी न था। पत्र लिखना-पढ़ना भी नहीं जानता था। वह क्रूर स्वभाव, कठोर अंत:स्थल वाला और पाषाण ह्दय था। जितनी कामयाबी उसे मिलती गई, वह उतना ही मदांध होता गया...’
-जियाउद्दीन बरनी ने तारीखे-फिरोजशाही में यह बात सुलतान अलाउद्दीन खिलजी के बारे में कही।
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कला के कारोबारी संजय लीला भंसाली की कुछ फिल्मंे मैंने देखी हैं। इतिहास के पसंदीदा टुकड़ों को अपनी आजाद ख्याली से जोड़कर ढाई घंटे की एक कहानी में परोसने में वे वैसे ही कुशल हैं, जैसा सिनेमा के एक कामयाब कारोबारी को होना चाहिए। इन दिनों उनकी नई फिल्म पदमावती सुर्खी में है। इतिहास का एक विद्यार्थी होने के नाते मेरी दिलचस्पी इसमें है कि संजय सिनेमा के परदे की लीला में सुलतान अलाउद्दीन खिलजी को किस तरह पेश करने वाले हैं।
मेरी दिलचस्पी रानी पद्मिनी में नहीं है। वह भारत के इतिहास की राख और धुएं की कहानी में एक दर्दनाक किरदार है। एक भारतीय होने के नाते मैं पद्मिनी के हश्र का एक हिस्सेदार और जिम्मेदार खुद को महसूस करता हूं। पद्मिनी चित्तौड़ के अासमान से गंूजी आंसुओं से भीगी एक पुकार है। सदियों बाद भी उस चिता की आग की गरमाहट अब तक मेरे विचारों में तपती है, जिसमें चित्तौड़ की हजारों राजपूत औरतें जिंदा जल मरने के लिए उतर गई थीं। उस दिन चित्तौड़गढ़ के किले पर अलाउद्दीन खिलजी की आहट थी।
सदियों तक इस्लाम का परचम फहराते हुए आए हमलावरों को हिंदुस्तान माले-गनीमत में मिला था। मुस्लिम सुलतानों और बादशाहों की फौजों से हारने पर बेहिसाब लूट, मंदिरों की तोड़फोड़, जुल्म, गुलामी और जबरन धर्म परिवर्तन के किस्से इतिहास में बिखरे हुए हैं। तब युद्ध हारने की हालत में राजपूत औरतों की सामूहिक आत्महत्याएं इतिहास में जौहर के नाम से लिखी गई हैं। ऐसे अनगिनत जौहर हुए हैं। राजस्थान के आसमान पर जौहरों का गाढ़ा काला धुआं सदियों तक देखा गया है। मेरे मध्यप्रदेश के चंदेरी और रायसेन में भी जौहर हुए हैं। हमारी आज की पीढ़ी की याददाश्त से यह सब गुम है। आखिरकार अलाउद्दीन खिलजी के करीब 225 साल बाद अकबर के समय राजस्थान की ज्यादातर रियासतों ने मध्यमार्ग अपनाया। यह शांति और समझाैते का रास्ता था। एकतरफा रिश्तों की शक्ल में एक ऐसा समझौता, जिसमें राजपूत राजाओं ने अपनी बहन-बेटियों को दिल्ली के बादशाहों के हरम में भेजा और अपनी रियासतों को बार-बार के हमलों, लूट और बरबादी से बचाने में कुछ हद तक कामयाब हुए।
मुझे जयपुर में इतिहास के एक जानकार ने बताया था कि सिर्फ अकबर के हरम में राजस्थान के करीब 40 राजघरानों की लड़कियां भेजी गईं थीं। आमेर राजघराने की जोधाबाई इनमें से एक थीं। हालांकि अकबर तो दोतरफा रिश्ते चाहता था। यानी मुस्लिम शाही वंश की लड़कियांें को भी राजपूत अपनाएं। मगर धर्म के अंधे राजपूतों को यह मंजूर नहीं था। वे खुश होकर एक हाथ से ताली बजाते रहे। यानी अपनी लड़कियों के डोले दिल्ली भेजते रहे। तब भी चित्तौड़ अकेला था, जो नहीं झुका। चित्तौड़गढ़ ने इसे अपमानजनक माना और कभी बादशाही ताकत के आगे घुटने नहीं टेके। अपनी अडिग नीति के कारण ही पूरे देश के मानस में आज भी चित्तौड़गढ़ नसों में लहू का प्रवाह तेज कर देता है, जहां सबसे पहले पद्मिनी को अलाउद्दीन के हाथों में पड़ने बेहतर यह लगा कि वे धधकती आग में जलकर मर जाएं। जयपुर में बसे चित्तौड़गढ़ के लोग आज भी गर्दन ऊँची करके बात करते हैं। वे आपको अपने दिल में राज करने वाले महाराणा प्रताप और अकबर के सेनापति बने जयपुर के राजा मानसिंह का फर्क बताएंगे।
 मैंने भारत के मुस्लिम शासकों के बारे में काफी कुछ पढ़ा है। मेरे अपने संग्रह में ढेरों किताबें हैं। खासकर दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान की पराजय के बाद शुरू हुए सुलतानों और बादशाहों के दुर्गम दौर का इतिहास, जो 1193 से शुरू होता है और अंग्रेजों के काबिज होने तक चलता है। दिल्ली में आप इसे बहादुरशाह जफर तक गिन सकते हैं, लेकिन औरंगजेब के बाद यानी 1707 के बाद से ही उनका सितारा डूबने लगा था।
यहां मैं अपनी बात सिर्फ अलाउद्दीन खिलजी पर केंद्रित रखूंगा, जिसने कुलजमा 21 साल दिल्ली में सुलतानी की। वह 1296 में अपने चाचा-ससुर जलालुद्दीन खिलजी को धोखे से कत्ल करके दिल्ली पर कब्जा करने आया। इसके पहले जलालुद्दीन ने उसे इलाहाबाद के पास कड़ा का हाकिम बनाया था। कड़ा की जागीर में रहते हुए जलालुद्दीन की इजाजत के बिना उसने पहली बार विदिशा पर हमला किया। मंदिर तोड़े और जमकर लूट की। विदिशा में ही उसे किसी ने देवगिरी का पता यह कहकर बताया कि यहां तो कुछ भी नहीं है। माल तो देवगिरी में है। दूसरी दफा वह जलालुद्दीन को बरगलाकर देवगिरी को लूटने में कामयाब हुआ। यहां उसे बेहिसाब दौलत मिली। अब उसने दिल्ली का सुलतान बनने का ख्वाब देखा। तब तक जलालुद्दीन को भी अपने धोखेबाज भतीजे के इरादों का पता चला। फिर भी उसे भरोसा था कि उसका दामाद अलाउद्दीन, जो उसका सगा भतीजा भी है हुकूमत के लालच में नहीं पड़ेगा। मान जाएगा।
दोनों के बीच समझौते की बातचीत गंगा नदी के किनारे एक शिविर में तय हुई। वह घात लगाए ही था। उसने बूढ़े और निहत्थे जलालुद्दीन का कत्ल धोखे से रमजान महीने में इफ्तारी के वक्त किया। बेरहमी से उसका सिर काटकर अलग किया गया और एक भाले पर टांगकर कड़ा-मानिकपुर के अलावा अवध में घुमाया गया। उस दौर में दुश्मनों के सिर काटकर इस तरह बेइज्जत करना कोई नहीं बात नहीं थी मगर जिस चाचा-ससुर और सुलतान ने उसकी बचपन से परवरिश की और अपनी बेटी दी, उसके इस तरह कत्ल किए जाने पर कई लेखकों ने भी अलाउद्दीन को बुरा-भला कहा। जियाउद्दीन बरनी का चचा अलाउलमुल्क अलाउद्दीन के समय दिल्ली का कोतवाल था। बरनी ने इस घटना का ब्यौरा विस्तार से लिखा है। अलाउद्दीन यहीं नहीं रुका। उसने जलालुद्दीन के दो बेटों अरकली खां और रुकनुद्दीन को अंधा करने के बाद कत्ल किया।
जब अलाउद्दीन दिल्ली में दाखिल हुआ तो उसे मालूम था कि लोग सुलतान की हत्या से बेहद नाराज हैं। अलाउद्दीन ने अपना जलवा दिखाने के लिए देवगिरी से लूटा गया सोना और जवाहरात सड़कों पर लुटाए। उसने हर पड़ाव पर हर दिन पांच मन सोने के सितारे लुटवाए। जलालुद्दीन के सारे भरोसेमंद दरबारियों को मुंह बंद रखने की मोटी कीमत चुकाई। सबको बीस-बीस मन सोना दिया गया। सबने उसकी सरपरस्ती चाहे-अनचाहे कुबूल की। 1296 में वह दिल्ली का सुलतान बना। उसके समकालीन इतिहासकार बताते हैं कि वह निहायत ही अनपढ़ था। उसे कुछ नहीं आता था। मगर वह कट्‌टर मुसलमान था। उसकी दाढ़ में भारत के राजघरानों की पीढ़ियों से जमा दौलत का खून विदिशा और देवगिरी में लग चुका था। आखिर उसे देवगिरि में मिला क्या था? देवगिरी की उस पहली लूट का हिसाब जियाउद्दीन बरनी ने यह लिखा है-देवगिरी के घेरे के 25 वें दिन रामदेव ने 600 मन सोना, सात मन मोती, दो मन जवाहरात, लाल, याकूत, हीरे, पन्ने, एक हजार मन चांदी, चार हजार रेशमी कपड़ों के थान और कई ऐसी चीजें जिन पर अक्ल को भरोसा न आए, अलाउद्दीन को देने का प्रस्ताव रखा।
यहां से खुलेआम लूट और कत्लेआम का एक ऐसा सिलसिला शुरू होता है, जो 1316 में अलाउद्दीन के कब्र में जाने तक पूरे भारत में लगातार चलता रहा। अलाउ्दीन खिलजी के करीब 340 साल बाद औरंगजेब ने भी सन् 1656 में ऐसी ही एक खूंरेज लड़ाई में अपने सगे भाइयों का कत्ल और बाप को कैद करके हिंदुस्तान की हुकूमत पर कब्जा किया था। जब आप पहले से कोई राय कायम किए बिना तफसील से अलाउद्दीन और आैरंगजेब के इतिहास को पढ़ेंगे तो पाएंगे दोनों एक जैसे धोखेबाज, क्रूर और कट्‌टर थे। औरंगजेब ने 50 साल तक राज किया। अलाउद्दीन ने 20 साल। भारत की तबाही में अलाउद्दीन औरंगजेब से काफी आगे और भारी दिखाई देगा। अलाउद्दीन के हमलों ने भारत की आत्मा को आहत किया।
 सुलतान बनने के बाद उसने एक बार उलुग खां को गुजरात पर हमला करने का हुक्म दिया। तब गुजरात का राजा करण था। अलाउद्दीन के इतिहासकार लिखते हैं कि करण हार के डर से देवगिरी चला गया। उलुग खां के हाथ करण का खजाना और रानी कमलादी लगी। कमलादी को दिल्ली लाया गया और सुलतान के सामने पेश किया गया। अब कमलादी सुलतान की संपत्ति थी। कमलादी की दो बेटियां थीं। एक मर चुकी थी अौर छह महीने की दूसरी बेटी गुजरात में ही छूट गई थी। उसका नाम था देवलदी। उसे दिवल रानी भी कहा गया है। एक बार मौका देखकर कमलादी ने सुलतान को खुश करते हुए अपनी बिछुड़ी हुई बेटी से मिलने की ख्वाहिश की। नन्हीं देवलदी को दिल्ली लाया गया। उसकी परवरिश सुलतान के ही महल में कमलादी के साथ हुई।
जब अलाउद्दीन के महलों में यह सब चल रहा था तब उसका एक बेटा खिज्र खां 11 साल का था। दिल्ली में बड़ी धूमधाम से उसकी शादी अलाउद्दीन खिलजी के ही एक करीबी सिपहसालार अलप खां की बेटी से हो चुकी थी। मगर वह देवलदी को भी चाहता था। दोनों साथ ही पले-बढ़े थे। आखिरकार एक दिन चुपचाप देवलदी से भी उसकी शादी हो गई। न कोई जश्न हुआ। न शादी जैसा कुछ। आप सोचिए-सुलतान अलाउद्दीन ने कमलादी को रखा। उसकी बेटी को अपने बेटे के साथ रख दिया! अमीर खुसरो ने खिज्र खां और देवलदी के बारे में खूब लिखा है! वह अपने समय की इन घटनाओं का चश्मदीद था।
भारत को लगातार लूटने की अलाउद्दीन की हवस की अपनी वजहें थीं। 1311 में दक्षिण भारत की लूट का हिसाब देखिए-मलिक नायब 612 हाथी, 20 हजार घोड़े और इन पर लदा 96 हजार मन सोना, मोती और जवाहरात के संदूक लेकर दिल्ली पहुंचा। सीरी के राजमहल में मलिक नायब ने सुलतान के सामने लूट का माल पेश किया। खुश होकर सुलतान ने दो-दो, चार-चार, एक-एक और अाधा-आधा मन सोना मलिकों और अमीरों को बांटा। दिल्ली के तजुर्बेकार लोग इस बात पर एकमत थे कि इतना और तरह-तरह का लूट का सामान इतने हाथी और सोने के साथ दिल्ली आया है, इतना माल इसके पहले किसी समय कभी नहीं आया। अलाउद्दीन खिलजी के हर हमले और लूट के ऐसे ही ब्यौरे हैं। इनमें बेकसूर हिंदुओं की अनगिनत हत्याओं के विवरण रोंगटे खड़े करने वाले हैं, जब नृशंस खिलजी के सैनिक हारे हुए हिंदुओं के कटे हुए सिरों को गेंद बनाकर चौगान खेला करते थे।
अलाउद्दीन खिलजी ने जो बोया, वह जनवरी 1316 में उसकी मौत के कुछ ही महीनों के भीतर उसकी औलादों ने अपने खून की हर बूंद के साथ काटा। सुलतान के ही भरोसेमंद नायब मलिक काफूर ने हिसाब बराबर किया। खिलजी की फौज को लेकर कफूर ने कई बड़ी दिल दहलाने वाली फतहें हासिल की थीं। सुलतान की मौत के पहले ही मलिक कफूर ने सुलतान के कई भरोसेमंद लोगांे को मरवाना शुरू कर दिया था। इसमें अलप खां भी शामिल था। खिज्र खां को उसने ग्वालियर के किले में कैद किया, जहां देवलदी भी उसके साथ थी। जब सुलतान मरा ताे मलिक काफूर ने सुंबुल नाम के एक गुलाम को ग्वालियर भेजकर खिज्र खां को अंधा करा दिया। सुलतान के दूसरे बेटे शहाबुद्दीन को भी मरवा दिया गया। शहाबुद्दीन सुलतान अलाउद्दीन खिलजी और देवगिरी के राजा रामदेव की बेटी झिताई का बेटा था। रामदेव को भी उसने कई बार लूटा और बेइज्जत किया था। मलिक कफूर सिर्फ 35 दिन जिंदा रह सका, अलाउद्दीन के लोगों ने उसे भी खत्म कर दिया।
 फिल्म देखने के पहले जान लीजिए कि जियाउद्दीन बरनी ने बताया है कि खिलजी के आदेश लागू होने के बाद हिंदुओं के पास सोना, चांदी, तनके, जीतल और धन-संपत्ति का नामोनिशान नहीं रह गया था। वह घोर गरीबी में आ गए थे। बड़े घरों की औरतों को भी मुसलमानों के घरों में काम के लिए मजबूर होना पड़ा। उनकी हालत ऐसी बना दी गई थी कि वे घोड़े पर न बैठ सकें, हथियार न रख सकें, अच्छे कपड़े न पहन सकें और बेफिक्र से जिंदगी न जी सकें।
अब मैं इत्मीनान से संजय लीला भंसाली की फिल्म को देखना चाहंूगा। और आप भी इस रोशनी में देखिएगा कि अगर सिनेमा एक कला है तो इस कला का इस्तेमाल भंसाली क्या बताने के लिए कर रहे हैं?
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खिलजी की 21 साल की हुकूमत: हमले, लूट, खूनखराबा, कत्लोगारत...
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-25 फरवरी 1296 : सुलतान बनने से पहले देवगिरी पर हमला और लूट
-18 जुलाई 1316 को देवगिरी से लौटकर उसने जलालुद्दीन की हत्या की।
-21 अक्टूबर 1396 को दिल्ली पहुंचा और जमकर लूट का सोना लुटाया।
-23 फरवरी 1299 को सोमनाथ पर हमले का हुक्म। फौज ने रास्ते में मार्च से जुलाई तक राजस्थान में रणथंभौर को लूटा। हिंदुओं का कत्ल। यहां भी राजपूत औरतों ने जौहर किया। गुजरात में सोमनाथ का मंदिर तोड़ा गया।
-28 जनवरी 1303: चित्तौड़ पर हमले का फैसला। इसी साल अगस्त में हमला। 30 हजार हिंदुओं का कत्ल। चित्तौड़ का नाम अपने बेटे खिज्र खां के नाम पर खिज्राबाद किया। खिज्र खां की ताजपोशी।
-23 नवंबर 1305: पूरा मालवा और मांडू रौंद डाला।
-24 मार्च 1307: एक बार फिर देवगिरी पर हमला।
-3 जुलाई 1308: सिवाना को घेरकर फतह।
-31 अक्टूबर 1309: तेलंगाना के लिए कूच। इस एक ही बार के अभियान के बाद खिलजी की फौजें 23 जून 1310 को लूट के बेहिसाब माल के साथ दिल्ली लौटीं।
-18 नवंबर 1310: माबर के लिए कूच। यह दक्षिण भारत का जबर्दस्त अभियान था। अमीर खुसरो ने इसे दिल्ली से एक साल की दूरी पर बताया है। पहली बार इन इलाकों में कोई मुस्लिम हमलावर गया। इसी धावे में फरवरी 1311 देवगिरी भी पहुंचा। अक्टूबर 1311 में फौजें कई रियासतों को रौंदते हुए दिल्ली लौटीं।
-4 जनवरी 1316 :अलाउद्दीन खिलजी की मौत।
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ये सारे विवरण खिलजी के समय के लेखकों के दस्तावेजों में हैं। इनमें जियाउद्दीन बरनी, अमीर खुसरो और उनके बाद के फरिश्ता के नाम उल्लेखनीय हैं।
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कालसर्प योग

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